उन दिनों दूध की तकलीफ थी। कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहारों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा-भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी। लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा। दोस्त साहब राजी हो गए। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है। उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनाएं, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाएं, इकरार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास में इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी का इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा।
दूध आने लगा, रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिली। एक हफ्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई। गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था-
रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई।
ताजा दूध पिलाया उसने लुत्फे हयात चखाया उसने।
दूध में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी।
खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत।१
1. एक फारसी कहावत
मगर धीरे-धीरे यहां पुरानी शिकायतें पैदा होने लगीं। यहां तक नौबत पहुंची कि दूध सिर्फ नाम का दूध रह गया। कितना ही उबालो, न कहीं मलाई का पता न मिठास। पहले तो शिकायत कर लिया करता था इससे दिल का बुखार निकल जाता था। शिकायत से सुधार न होता तो दूध बन्द कर देता था। अब तो शिकायत का भी मौका न था, बन्द कर देने का जिक्र ही क्या। भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर, पियो या नाले में डाल दो। आठ आने रोज का नुस्खा किस्मत में लिखा हुआ। बच्चा दूध को मुंह न लगाता, पीना तो दूर रहा। आधों आध शक्कर डालकर कुछ दिनों दूध पिलाया तो फोड़े निकलने शुरू हुए और मेरे घर में रोज बमचख मची रहती थी। बीवी नौकर से फरमाती-दूध ले जाकर उन्हीं के सर पटक आ। मैं नौकर को मना करता। वह कहतीं-अच्छे दोस्त है तुम्हारे, उसे शरम भी नहीं आती। क्या इतना अहमक है कि इतना भी नहीं समझता कि यह लोग दूध देखकर क्या कहेंगे! गाय को अपने घर मंगवा लो, बला से बदबू आयगी, मच्छर होंगे, दूध तो अच्छा मिलेगा। रुपये खर्चे हैं तो उसका मजा तो मिलेगा।
चड्ढा साहब मेरे पुराने मेहरबान हैं। खासी बेतकल्लुफी है उनसे। यह हरकत उनकी जानकारी में होती हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती। या तो उनकी बीवी की शरारत है या नौकर की लेकिन जिक्र कैसे करूं। और फिर उनकी बीवी से भी तो राह-रस्म है। कई बार मेरे घर आ चुकी हैं। मेरी बीवी जी भी उनके यहां कई बार मेहमान बनकर जा चुकी हैं। क्या वह यकायक इतनी बेवकूफ हो जायेंगी, सरीहन आंखों में धूल झोंकेंगी! और फिर चाहे किसी की शरारत हो, मेरे लिएयह गैरमुमकिन था कि उनसे दूध की खराबी की शिकायत करता। खैरियत यह हुई कि तीसरे महीने चड्ढा का तबादला हो गया। मैं अकेले गाय न रख सकता था। साझा टूट गया। गाय आधे दामों बेच दी गई। मैंने उस दिन इत्मीनान की सांस ली।
आखिर यह सलाह हुई कि एक बकरी रख ली जाय। वह बीच आंगन के एक कोने में पड़ी रह सकती है। उसे दुहने के लिए न ग्वाले की जरूरत न उसका गोबर उठाने, नांद धोने, चारा-भूसा डालने के लिए किसी अहीरिन की जरूरत। बकरी तो मेरा नौकरभी आसानी से दुह लेगा। थोड़ी-सी चोकर डाल दी, चलिये किस्सा तमाम हुआ। फिर बकरी का दूध फायदेमंद भी ज्यादा है, बच्चों के लिए खास तौर पर। जल्दी हजम होता है, न गर्मी करे न सर्दी, स्वास्थ्यवर्द्धक है। संयोग से मेरे यहां जो पंडित जी मेरे मसौदे नकल करने आया करते थे, इन मामलों में काफी तजुर्बेकार थे। उनसे जिक्र आया तो उन्होंने एक बकरी की ऐसी स्तुति गाई, उसका ऐसा कसीदा पढ़ा कि मैं बिन देखे ही उसका प्रेमी हो गया। पछांही नसल की बकरी है, ऊंचे कद की, बड़े-बड़े थन जो जमीन से लगते चलते हैं। बेहद कमखोर लेकिन बेहद दुधार। एक वक्त में दो-ढाई सेर दूध ले लीजिए। अभी पहली बार ही बियाई है। पच्चीस रुपये में आ जायगी। मुझे दाम कुछ ज्यादा मालूम हुए लेकिन पंडितजी पर मुझे एतबार था। फरमाइश कर दी गई और तीसरे दिन बकरी आ पहुंची। मैं देखकर उछल पड़ा। जो-जो गुण बताये गये थे उनसे कुछ ज्यादा ही निकले। एक छोटी-सी मिट्टी की नांद मंगवाई गई, चोकर का भी इन्तजाम हो गया। शाम को मेरे नौकर ने दूध निकाला तो सचमुच ढाई सेर। मेरी छोटी पतीली लबालब भर गई थी। अब मूसलों ढोल बजायेंगे। यह मसला इतने दिनों के बाद जाकर कहीं हल हुआ। पहले ही यह बात सूझती तो क्यों इतनी परेशानी होती। पण्डितजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया। मुझे सवेरे तड़के और शाम को उसकी सींग पकड़ने पड़ते थे तब आदमी दुह पाता था। लेकिन यह तकलीफ इस दूध के मुकाबले में कुछ न थी। बकरी क्या है कामधेनु है। बीवी ने सोचा इसे कहीं नजर न लग जाय इसलिए उसके थन के लिए एक गिलाफ तैयार हुआ, इसकी गर्दन में नीले चीनी के दानों का एक माला पहनाया गया। घर में जो कुछ जूठा बचता, देवी जी खुद जाकर उसे खिला आती थीं।
लेकिन एक ही हफ्ते में दूध की मात्रा कम होने लगी। जरूर नजर लग गई। बात क्या है। पण्डितजी से हाल कहा तो उन्होंने कहा-साहब, देहात की बकरी है, जमींदार की। बेदरेग अनाज खाती थी और सारे दिन बाग में घूमा-चरा करती थी। यहॉँ बंधे-बंधे दूध कम हो जाये तो ताज्जुब नहीं। इसे जरा टहला दिया कीजिए।
लेकिन शहर में बकरी को टहलाये कौन और कहां? इसलिए यह तय हुआ कि बाहर कहीं मकान लिया जाय। वहां बस्ती से जरा निकलकर खेत और बाग है। कहार घण्टे-दो घण्टे टहला लाया करेगा। झटपट मकान बदला और गौ कि मुझे दफ्तर आने-जाने में तीन मील का फासला तय करना पड़ता था लेकिन अच्छा दूधमिले तो मैं इसका दुगना फासला तय करने को तैयार था। यहां मकान खूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, जरा और बढ़कर आम और महुए का बाग। बाग से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में आलू, किसी में गोभी। एक काछी से तय कर लिया कि रोजना बकरी के लिए कुछ हरियाली जाया करे। मगर इतनी कोशिश करने पर भी दूध की मात्रा में कुछ खास बढ़त नहीं हुई। ढाई सेर की जगह मुश्किल से सेर-भर दूध निकलता था लेकिन यह तस्कीन थी कि दूध खालिस है, यही क्या कम है!
मै। यह कभी नहीं मान सकता कि खिदमतगारी के मुकाबले में बकरी चराना ज्यादा जलील काम है। हमारे देवताओं और नबियों का बहुत सम्मानित वर्ग गल्ले चराया करते था। कृष्ण जी गायें चराते थे। कौन कह सकता है कि उस गल्ले में बकरियां न रही होंगी। हजरत ईसा और हजरत मुहम्मद दोनों ही भेड़े चराते थे। लेकिन आदमी रूढ़ियों का दास है। जो कुछ बुजुर्गों ने नहीं किया उसे वह कैसे करे। नये रास्ते पर चलने के लिए जिस संकल्प और दृढ़ आस्था की जरूरत है वह हर एक में तो होती नहीं। धोबी आपके गन्दे कपड़े धो लेगा लेकिन आपके दरवाजे पर झाड़ू लगाने में अपनी हतक समझता है। जरायमपेशा कौमों के लोग बाजार से कोई चीज कीमत देकर खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। मेरे खितमतगार को बकरी लेकर बाग में जाना बुरा मालूम होता था। घरसे तो ले जाय लेकिन बाग में उसे छोड़कर खुद किसी पेड़ के नीचे सो जाता। बकरी पत्तियां चर लेती थी। मगर एक दिन उसके जी में आया कि जरा बाग से निकलकर खेतों की सैर करें। यों वह बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत बकरी थी, उसके चेहरे से गम्भीरता झलकती थी। लेकिन बाग और खेत में घुस गई आजादी नहीं है, इसे वह शायद न समझ सकी। एक रोज किसी खेत में घुस गई और गोभी की कई क्यारियां साफ कर गई। काछी ने देखा तो उसके कान पकड़ लिये और मेरे पास लाकर बोला-बाबजी, इस तरह आपकी बकरी हमारे खेत चरेगी तो हम तो तबाह हो जायेंगे। आपको बकरी रखने का शौक है तो इस बांधकर रखिये। आज तो हमने आपका लिहाज किया लेकिन फिर हमारे खेत में गई तो हम या तो उसकी टॉँग तोड़ देंगे या कानीहौज भेज देंगे।
अभी वह अपना भाषण खत्म न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुंची और उसने इसी विचार को और भी जोरदार शब्दों में अदा किया-हां, हां, करती ही रही मगर रांड खेत में घुस गई और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवनी बैठे! यहॉँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है। हाकिम होंगे अपने घर के होंगे। बकरी रखना है तो बांधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूंगी!
मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था। जितनी फटकर आज सहनी पड़ी उतनी जिन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगरउसे दूसरे मौकों पर काम लिया होतातो आज आदमी होता। कोई जवाब नहीं सूझता था। बस यही जी चाहता थाकि बकरी का गला घोंट दूं ओर खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊं। मेरी खामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर खामोशी नुकसानदेह साबित होती है। खैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाजे पर आ गई तो हेकड़ी से बोली-तू कानीहौज पहुंचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से। जानवर ही है, एक दिन खुल गई तो क्या उसकी जान लेगी? खबरदार जो एक बात भी मुंह से निकाली। क्यों नहीं खेत के चारों तरफ झाड़ लगा देती, कॉँटों से रूंध दे। अपनी गती तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आई है। अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बंधे-बंधे फिरो।
बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की खूब खबर ली-गरीबों का नुकसन भी करती हो और ऊपर से रोब जमाती हो। इसी का नाम इंसाफ है?
देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया-मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतनों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डांटने। गंवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमजोरी समझते हैं और कमजोर को कोन नहीं दबाना चाहता।
खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ कह दिया-साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है।
मैंने कहा-तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहो करो कि किसी खेत में न जाय, इतना भी तुमसे नहीं हो सकता?
मैं बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए।
आखिरी मैंने खुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फैसला किया। इतने जरा-से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर था। और अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था। दूसरे दिन में दफ्तर से जरा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग में जा पहुंचा। जोड़ों के दिन थे। ठण्डी हवा चल रही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियॉँ गिरी हुई थीं। बकरी एक पल में वह जा पहुंची। मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौड़ता फिरता था। दफ्तर से लौटकर जरा आराम किया करता था, आज यह कवायद करना पड़ी, थक गया, मगर मेहनत सफल हो गई, आज बकरी ने कुछ ज्यादा दूध पिया।
यह खयाल आया, अगर सूखी पत्तियां खाने से दूध की मात्रा बढ़ गई तो यकीनन हरी पत्तियॉँ खिलाई जाएं तो इससे कहीं बेहतर नतीजा निकले। लेकिन हरी पत्तियॉँ आयें कहॉँ से? पेड़ों से तोडूं तो बाग का मालिक जरूर एतराज करेगा, कीमत देकर हरी पत्तियां मिल न सकती थीं। सोचा, क्यों एक बार बॉँस के लग्गे से पत्तियां तोड़ें। मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरजू-मिन्नत कर लेंगे। राजी हो गया तो खैर, नहीं देखी जायगी। थोड़ी-सी पत्तियॉँ तोड़ लेने से पेड़ का क्या बिगड़ जाता है। चुनाचे एक पड़ोसी से एकपतला-लम्बा बॉँस मॉँग लाया, उसमें एक ऑंकुस बॉँधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियॉँ तोड़ने लगा। चोर ऑंखों से इधर-उधर देखता जाता था, कहीं मालिक तो नहीं आरहा है। अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियां तोड़ते देखकर बोला-यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ में यह लग्गा अच्छा नहीं लगता। बकरी पालना हम गरीबों का काम है कि आप जैसे शरीफों का। मैं कट गया, कुछ जवाब नसूझा। इसमें क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए। सफेदपोशी के आत्मगौरव के जबान बन्द कर दी। काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियों का ढेर लगा दिया और पूछा-पत्तियॉँ कहॉँ रख जाऊं?
मैंने झेंपते हुए कहा-तुम रहने दो? मैं उठा ले जाऊंगा।
उसने थोड़ी-सी पत्तियॉं बगल में उठा लीं और बोला-आप क्या पत्तियॉँ रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊं।
मैंने बरामदे में पत्तियॉँ रखवा लीं। उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियां पड़ी हुई थी। काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया। अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते हैं। कोई बात मतलब से खाली नहीं।
मगर दूसरे दिन बकरी को बाग में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया। काछी फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे। उसकी नजरों में गिर जाना मुंह से कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था। हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगों ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पड़ेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे।
लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्व आजाद चहलकदमी से हाथ न खींचना चाहती थी जिसे उसने अपने साधारण दिनचर्या समझना शुरू
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कर दिया था। शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठायया कि घर में बैठना मुश्किल हो गय। गिटकिरीदार ‘मे-मे’ का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दों को क्षत-विक्षत करने लगा। कहां भाग जाऊं? बीवी ने उसे गालियां देना शुरू कीं। मैंने गुससे में आकर कई डण्डे रसीदे किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थागित न करना था न किया। बड़े संकट में जान थी।
आखिर मजबूर हो गया। अपने किये का, क्या इलाज! आठ बजे रात, जाड़ों के दिन। घर से बाहर मुंह निकालना मुश्किल और मैं बकरी को बाग में टहला रहा था और अपनी किस्मत को कोस रहा था। अंधेरे में पांव रखते मेरी रूह कांपती है। एक बार मेरे सामने से एक सांप निकल गया था। अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो जरूर काट लेता। तब से मैं अंधेरे में कभी न निकलता था। मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस खतरे का भी सामना करना पड़ा। जरा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आंखें ठिठुर जातीं और पिंडलियां कॉँपने लगतीं। शायद उस जन्म में मैं बकरी रहा हूंगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी। उसी का प्रायश्चित इस जिन्दगी में भोग रहा था। बुरा हो उस पण्डित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढी। गिरस्ती भी जंजाल है। बच्चा न होता तो क्यों इस मूजी जानवर की इतनी खुशामद करनी पड़ती। और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिए क्या किया है। कौन-सी जायदाद छोड़ी है! यह सजा भुगतकर नौ बजे रात को लौटा। अगररात को बकरी मर जाती तो मुझे जरा भी दु:ख न होता।
दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले। आज दफ्तर में छुट्टी थी। मैंने एक लम्बी रस्सी मंगवाई और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड़ से बांधकर सो गया-अब चरे जितना चाहे। अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊंगा। छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी। एक अच्छा-सा खेल आया हुआ था। नौकर को भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन सभालाता। जब नौ बजे रात को घर लोटे और में लालटेन लेकर बकरी लेनो गया तो क्या देखता हूं कि उसने रस्सी को दो-तीन पेड़ों से लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुश्किल है। इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक कदम भी चल सकती। लाहौलविकलाकूवत, जी में आया कि कम्बख्त को यहीं छोड़ दूं, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी में रस्सी सुलझाने बैठे। लेकिन दिल न माना। पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेंच-दर-पेंच ऐंठन छुड़ाई, एक घंटा लग गया। मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग। यह तरकीब। और भी तकलीफदेह साबित हुई।
अब क्या करूं, अक्ल काम न करती थी। दूध का खयाल न होता तो किसी को मुफ्त दे देता। शाम होते ही चुड़ैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर में रहना मुश्किल हो जायगा, और आवाज भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है। शास्त्रों में लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते। स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियां जो अप्सराओं के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज से नफरत करें तो क्या ताज्जुब! मुझ पर उसकी कर्ण कटु पुकारों को ऐसा आंतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मैं घर से निकल भागा। लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज मेरा पीछा किये चली आती है। अपने इस चिड़चिड़ेपन पर शर्म भी आ रही थी। जिसे एक बकरीरखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाजुक दिमाग क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नहीं, आठ बजे पहुंचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा?
सहसा एक नीची शाखोंवाला पेड़ देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई। सपाट तनों पर चढ़ना मुश्किल होता है, यहां तो छ: सात फुट की ऊंचाई पर शाखें फूट गयी थीं। हरी-हरी पत्तियों से पेड़ लदा खड़ा था और पेड़ भी था गूलर का जिसकी पत्तियों से बकरियों को खास प्रेम है। मैं इधर तीस साल से किसी रुख पर नहीं चढ़ा। वहआदत जाती रही। इसलिए आसान चढ़ाई के बावजूद मेरे पांव कांप रहे थे पर मैंने हिम्मत न हारी और पत्तियों तोड़-तोड़ नीचे गिराने लगा। यहां अकेले में कौन मुझे देखता है कि पत्तियां तोड़ रहा हूं। अभी अंधेरा हुआ जाता है। पत्तियों का एक गट्ठा बगल में दबाऊंगा और घर जा पहुंचूंगा। अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ चीं-चपड़ की तो उसकी शामत ही आ जायगी।
मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों काएक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा। मैं ऊपर से चीख रहा हूं मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कहीं पता नहीं । कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊंगा तो गालियां पड़ेंगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल में पत्तियां गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टांग तोडूंगा। यकायक पांव फिसला और मैं दस फिट की ऊंचाई से नीचे आ रहा। कमर में ऐसी चोट आयी कि पांच मिनट तक आंखों तले अंधेरा छा गया। खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियां भागीं और थोड़ी-सी पत्तियां बच रहीं। जब जरा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फलांग रह गया और मैंने कदम तेज किये कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनो तरफ खेतों की ऊंची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये। कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं और बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की सांस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूंखार शोरहो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफत के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की जबान बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आंखों की रोशनी गायब कर दे...आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज के फासले से निकला! एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज कानों में आयी-कौन है रे, कहां से पत्तियां तोड़े लाता है!
मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुंचा हूं। रोएं बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा। तेजी से दो-तीन कदम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया न थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी।
कि एक जालिम हाथ गट्ठे पर पड़ा और गट्ठा नीचे गिर पड़ा। फिर मुझे याद नहीं, क्या हुआ। मुझे जब होश आया तो मैं अपने दरवाजे पर पसीने से तर खड़ा था गोया मिरगी के दौरे के बाद उठा हूं। इस बीच मेरी आत्मा पर उपचेतना का आधिपत्य था और बकरी की वह घृणित आवाज, वह कर्कश आवाज, वह हिम्मत तोड़नेवाली आवाज, वह दुनिया की सारी मुसीबतों का खुलसा, वह दुनिया की सारी लानतों की रूह कानों में चुभी जा रही थी।
बीवी ने पूछा-आज कहां चले गये थे? इस चुड़ैल को जरा बाग भी न ले गये,जीना मुहाल किये देती है। घर से निकलकर कहां चली जाऊ!
मैंने इत्मीनान दिलाया-आज चिल्ला लेने दो, कल सबसे पहला यह काम करूंगा कि इसे घर से निकाल बाहर करूंगा, चाहे कसाई को देना पड़े।
‘और लोग न जाने कैसे बकरियां पालते हैं।’
‘बकरी पालने के लिए कुत्ते का दिमाग चाहिए।’
सुबह को बिस्तर से उठकर इसी फिक्र में बैठा था कि इस काली बलासे क्योंकर मुक्ति मिले कि सहसा एक गड़रिया बकरियों का एक गल्ला चराता हुआ आ निकला। मैंने उसे पुकारा और उससे अपनी बकरी को चराने की बात कही। गड़रिया राजी हो गया। यही उसका काम था। मैंने पूछा-क्या लोगे?
‘आठ आने बकरी मिलते हैं हजूर।’
‘मैं एक रुपया दूंगा लेकिन बकरी कभी मेरे सामने न आवे।’
गड़रिया हैरत में रह गया-मरकही है क्या बाबूजी?
‘नही, नहीं, बहुत सीधी है, बकरी क्या मारेगी, लेकिन मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहता।’
‘अभी तो दूध देती है?’
‘हां, सेर-सवा सेर दूध देती है।’
‘दूध आपके घर पहुंच जाया करेगा।’
‘तुम्हारी मेहरबानी।’
जिस वक्त बकरी घर से निकली है मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे घर का पाप निकला जा रहा है। बकरी भी खुश थी गोया कैद से छूटी है, गड़रिये ने उसी वक्त दूध निकाला और घर में रखकर बकरी को लिये चला गया। ऐसा बेगराज गाहक उसे जिन्दगी में शायद पहली बार ही मिला होगा।
एक हफ्ते तक दूध थोड़ा-बहुत आता रहा फिर उसकी मात्रा कम होने लगी, यहां तक कि एक महीना खतम होते-होते दूध बिलकुल बन्द हो गया। मालूम हुआ बकरी गाभिन हो गयी है। मैंने जरा भी एतराज न किया काछी के पास गाय थी, उससे दूध लेने लगा। मेरा नौकर खुद जाकर दुह लाता था।
कई महीने गुजर गये। गड़रिया महीने में एक बार आकर अपना रुपया ले जाता। मैंने कभी उससे बकरी का जिक्र न किया। उसके खयाल ही से मेरी आत्मा कांप जाती थी। गड़रिये को अगर चेहरे का भाव पढ़ने की कला आती होती तो वह बड़ी आसानी से अपनी सेवा का पुरस्कार दुगना कर सकता था।
एक दिन मैं दरवाजे पर बैठा हुआ था कि गड़रिया अपनी बकरियों का गल्ला लिये आ निकला। मैं उसका रुपया लाने अन्दर गया, कि क्या देखता हूं मेरी बकरी दो बच्चों के साथ मकान में आ पहुंची। वह पहले सीधी उस जगह गयी जहां बंधा करती थी फिर वहां से आंगन में आयी और शायद परिचय दिलाने के लिए मेरी बीवी की तरफ ताकने लगी। उन्होंने दौड़कर एक बच्चे को गोद में ले लिया और कोठरी में जाकर महीनों का जमा चोकर निकाल लायीं और ऐसी मुहब्बत से बकरी को खिलाने लगीं कि जैसे बहुत दिनों की बिछुड़ी हुई सहेली आ गयी हो। न व पुरानी कटुता थी न वह मनमुटाव। कभी बच्चे को चुमकारती थीं। कभी बकरी को सहलाती थीं और बकरी डाकगड़ी की रफ्तार से चोकर उड़ा रही थी।
तब मुझसे बोलीं-कितने खूबसूरत बच्चे है!
‘हां, बहुत खूबसूरत।’
‘जी चाहता है, एक पाल लूं।’
‘अभी तबियत नहीं भरी?’
‘तुम बड़े निर्मोही हो।’
चोकर खत्म हो गया, बकरी इत्मीनान से विदा हो गयी। दोनों बच्चे भी उसके पीछे फुदकते चले गये। देवी जी आंख में आंसू भरे यह तमाशा देखती रहीं।
गड़रिये ने चिलम भरी और घर से आग मांगने आया। चलते वक्त बोला-कल से दूध पहुंचा दिया करूंगा। मालिक।
देवीजी ने कहा-और दोनों बच्चे क्या पियेंगे?
‘बच्चे कहां तक पियेंगे बहूजी। दो सेर दूध् अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया।’
मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी।
मैंने कहा-दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना।
उस दिन से न वह गड़रिया नजर आया न वह बकरी, और न मैंने पता लगाने की कोशिश की। लेकिन देवीजी उसके बच्चों को याद करके कभी-कभी आंसू बहा रोती हैं।
-‘वारदात’ से
Tuesday, 1 May 2018
ज्योति
विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृत पति को कोसती-आप तो सिधार गए, मेरे लिए यह जंजाल छोड़ गए । जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किसलिए किया । घर में भूनी भॉँग नहीं, चले थे ब्याह करने ! वह चाहती तो दूसररी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-सुनने में भी बुरी न थी । दो-एक आदमी तैयार भी थे, लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे । अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती, वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर वह कहीं बैठ जाए, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन बच्चों के होते इसे यह क्या सूझी ।
मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों-भैसों की सानी-पानी, दुहना-मथना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया, उसे यही गिला था । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया । न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आयी, मानो भट्टी में पड़ गई । उसकी वैधव्य-साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी । पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पॉँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गए ।
उसी मुहल्ले में उसकी बिरादरी में, कितनी ही औरतें थीं, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी-सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं, इसलिए अब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर। वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनंद मिलता था । उसकी वंचित लालसा, जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे संभव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया बूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साँड़ बनने पर उतारू हो गया है ।
मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा-कैसा साँड़! बात क्या है ?
‘तू रूपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता? उस पर कहता है कैसा साँड़? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े रँगाए जाते है।’
मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया—अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे, तो लाऊँगा ? अपनी धोती रँगने को दी, उससे रँगाई मांगता ?
‘मुहल्ले में एक तू ही धन्नासेठ है! और किसी से उसने क्यों न कहा?’
‘यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।’
‘तुझे अब छैला बनने की सूझती है । घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’
‘यहाँ पान किसके लिए लाता ?’
‘क्या तेरे लिखे घर में सब मर गए ?’
‘मैं न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।’
‘संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?’
‘शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।’
बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे में उन साधनों का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दी । उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी चढ़ती जवानी थी । तीन बच्चे भगवान् ने उसके गले मढ़ दिए, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज वह भी ओठ लाल किए, पाँव में महावर लगाए, अनवट-बिछुए पहने मटकती फिरती । यह सब कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है! रुपिया उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, आैर बूटी बुढ़िया है!
बोली-हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे चीथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बड़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती तो, तुम लोगों का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।
मोहन ने डरते-डरते कहा—मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मा!
‘कैसी बात ?’
‘सगाई की।’
‘अगर रुपिया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। राँड़ से इतना भी नहीं देखा जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।’
मोहन ने व्यथित कंठ में कहा,अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जाएगी, तुम अकेली पड़ जाओगी । इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।
‘तू आज से यहीं आँगन में सोया कर।’
‘और गायें-भैंसें बाहर पड़ी रहेंगी ?’
‘पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता।’
‘मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?’
‘हाँ !’
‘तो मैं यहाँ न सोऊँगा।’
‘तो निकल जा घर से।’
‘हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा।’
मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा-मुझे भूख नहीं है! बूटी उसे मनाने न आयी । मोहन का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा। रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर ही दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव वसंत की भाँति आकर उसे पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करना होता, पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या, दे दे कि वह प्रसन्न हो जाए! अब वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाए ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में केसी-कैसी बातें हुई थीं । मोहन ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाहक निकल आएँगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राण में बसा हुआ था-मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको । परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करो, तब भी मोहन हो । उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है!
नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं है । वह रुपिनया के साथ माँ से अलग रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मुहल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है। कहीं अम्मां सुन पावें कि वह रात को रुपिया के द्वार पर गया था, तो परान ही दे दें। दे दें परान! अपने भाग तो नहीं बखानतीं कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है। न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है। वह जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है। बस, यही तो।
चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। रुपिनया आ रही है! हा; वही है।
रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली-सो गए क्या मोहन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?
मोहन नींद का मक्कर किए पड़ा रहा।
रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा-क्या सो गए मोहन ?
उन कोमाल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्घि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी वरदान के लिए सामने खड़ी है। सारा विश्व जैसे नाच रहा है। उसे मालूम हुआ जैसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह एक मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद में चिपटा हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।
रुपिया ने कहा-अभी से सो गए क्या जी ?
मोहन बोला-हाँ, जरा नींद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीं? कहीं अम्मा देख लें, तो मुझे मार ही डालें।
‘तुम आज आये क्यों नहीं?’
‘आज अम्माँ से लड़ाई हो गई।’
‘क्या कहती थीं?’
‘कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी।’
‘तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्यों चिढ़ती हो ?’
‘अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा? वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं। अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा।’
मेरा जी तो न मानेगा।’
‘ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा।’
‘तुम मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ नहीं चाहती।’
‘और अम्माँ जो बिगड़ेंगी।’
‘तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार नहीं करते।
‘मेरा बस होता, तो तुमको अपने परान में रख लेता।’
इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई।
2
मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनंद का सागर-सा भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन आलसी था। घर के काम-धंधे में जी न लगाता था । मोहन को देखते ही वह साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा।
मोहन ने मुस्कराकर कहा-धोती बहुत मैली हो गई है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं देते?
सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गंध आई।
‘धोबिन पैसे माँगती है।’
‘तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?’
‘अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ?’
‘तो मुझसे ले लो!’
यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी। सोहन प्रसन्न हो गया। भाई और माता दोनों ही उसे धिक्कारते रहते थे। बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला। इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चल।
मोहन ने कहा-रहने दो, मैं इसे लिये जाता हूँ।
सोहन ने पगहिया मोहन को देकर फिर पूछा-तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?
जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया था। इसमें क्या रहस्य है, यह मोहन की समझ में नहीं आया। बोला-आग हो तो रख आओ।
मैना सिर के बाल खेले आँगन में बैठी घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते ही उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईधर में बरतन उठाने चली।
मोहन ने पूछा-क्या खेल रही थी मैना ?
मैना डरी हुई बोली-कुछ नहीं तो।
‘तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। जरा बना, देखूँ।’
मैना का रुआंसा चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्द में कितना जादू है! मुँह से निकलते ही जैसे सुगंध फैल गई। जिसने सुना, उसका हृदय खिल उठा। जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा। जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा। चारों ओर चेतनता दौड़ गई। कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं। मोहन का हृदय आज प्रेम से भरा हुआ है। उसमें सुगंध का विकर्षण हो रहा है।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।
मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा-तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले।
मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमाचम करके पानी ले जाएगी।
‘अम्माँ पैसे नहीं देतीं। गुड्डा तो ठीक हो गया है। टीका कैसे भेजूँ?’
‘कितने पैसे लेगी ?’
‘एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग। जोड़े तो रँगे जाएँगे कि नहीं?’
‘तो दो पैसे में तेरा काम चल जाएगा?’
‘हाँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाए।’
मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाए। मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। मोहन ने उसे गोद में उठा लिया। मैना ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी। फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता देने के लिए भागी।
उसी वक्त बूटी गोबर का झाँवा लिये आ पहुंची। मोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली-अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है। भैंस कब दुही जाएगी?
आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया। जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई सोता-सा खुल गया हो। माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झाँवा उसके सिर से उतार लिया।
बूटी ने कहा-रहने दे, रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ।
‘तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुजला लेतीं?’
माता का हृदय वात्सल्य से गदगद हो उठा।
‘तू जा अपना काम देखं मेरे पीछे क्यों पड़ता है!’
‘गोबर निकालने का काम मेरा है।’
‘और दूध कौन दुहेगा ?’
‘वह भी मैं करूँगा !’
‘तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !’
‘जितना कहता हूँ, उतना कर लूँगा।’
‘तो मैं क्या करूँगी ?’
‘तुम लड़कों से काम लो, जो तुम्हारा धर्म है।’
‘मेरी सुनता है कोई?’
3
मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, तो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और थोड़ी-सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़कर बोली-आज पैसे कहीं फालतू मिल गए थे क्या ? इस तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा?
‘मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ। पहले मैं समझता था, तुम पान खातीं ही नहीं।
‘तो अब मैं पान खाऊँगी !’
‘हाँ, और क्या! जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ?’
बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आई, एक नन्ही-सी कोंपल थी; उसके अंदर कितना रस था। उसने मैना और सोहन को एक-एक मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी।
‘मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ।’
‘और तू तो बूढ़ा हो गया, क्यों ?’
‘इन लड़कों क सामने तो बूढ़ा ही हूँ।’
‘लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है।’
मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी। वह केवल मिठाई का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी। मोहन को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने आधा लड्डू तोड़कर मैना को दे दिया। एक मिठाई दोने में बची थी। बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा-लाया भी तो इतनी-सी मिठाई। यह ले ले।
मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा-वह तुम्हारा हिस्सा है अम्मा।
‘तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनंद मिलता है। उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है।’
उसने आधी मिठाई सोहन और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी। आज जीवन में पहली बार उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में मिली। पानदान में कई कुल्हियाँ हैं। और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियाँ भी हैं; ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चाहो, लटकाकर ले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान रखे जाएँगे।
ज्यों ही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारी काटी, पान को भिगोकर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बीड़े के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं कि इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाए। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें मुँह देखा। ओठों पर लाली है। मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही पान खाया है।
धनिया ने आकर कहा-काकी, तनिक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है।
कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव-भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बंद हुए कि नहीं धनिया ?
धनिया ने उदास मन से कहा-नहीं काकी, आज तो दिन-भर दस्त आए। जाने दाँत आ रहे हैं।
‘पानी भर ले तो चल जरा देखूँ, दाँत ही हैं कि कुछ और फसाद है। किसी की नजर-वजर तो नहीं लगी ?’
‘अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो?’
‘चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।’
‘जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है। ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या कहूँ!’
‘कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है।’
‘ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगाएगा!’
‘यही तो तू समझती नहीं। नजर आप ही लग जाती है।’
धनिया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।
‘तू अकेली है। आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा।’
‘नहीं काकी, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।’
बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिया को उसने केवल तितली समझ रखा था।
‘रुपिया!’
‘हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है। झाडू लगा देती है, चौका-बरतन कर देती है, लड़के को सँभालती है। गाढ़े समय कौन, किसी की बात पूछता है काकी !’
‘उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी न मिलती होगी।’
‘यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी! मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया। बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ, जब तक जीऊँगी, उसका जस गाऊँगी।’
‘तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?’
‘मैं इन बातो में नहीं पड़ती काकी! फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं चाहता ? खाने-पहनने की यही तो उमिर है।’
धनिया ने बच्चे को खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रखा, पेट में धीरे-धीरे उँगली गड़ाकर देखा। नाभी पर हींग का लेप करने को कहा। रुपिया बेनिया लाकर उसे झलने लगी।
बूटी ने कहा-ला बेनिया मुझे दे दे।
‘मैं डुला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ?’
‘तू दिन-भर यहाँ काम-धंधा करती है। थक गई होगी।’
‘तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे, वह बिना गाली के बात नहीं करती। मारे डर के तुम्हारे पास न आयी।’
बूटी मुस्कारायी।
‘लोग झूठ तो नहीं कहते।’
‘मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?’
कह तो दी होगी। दूसरी लड़की होती, तो मेरी ओर से मुंह फेर लेती। मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती। इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो। हो सकता हे कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हाँ, यही बात है।
आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब करेगी? शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाती हों कि जरा इस दूकान की सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उनके रूप की बखान करें। किसे दूसरों की आँखों में छुप जाने की लालसा नहीं होती ? बूटी का यौवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है।
उस दिन से रूपा प्राय: दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाए या बेरंगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती-बहू-बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है।
रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ! लोगों को इशारा मिल जाए, तो भौंरों की तरह तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगें।
बूटी ने मीठे तिरस्कार से कहा-चल, मैं तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ?
‘अम्माँ तो बूढ़ी हो गई।’
‘तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं?’
‘हाँ ऐसा, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी।’
बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से ददेखकर पूछा-अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूँ ?
रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई।
आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा-कुछ रुपये-पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ।
मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों-भैसों की सानी-पानी, दुहना-मथना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया, उसे यही गिला था । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया । न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आयी, मानो भट्टी में पड़ गई । उसकी वैधव्य-साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी । पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पॉँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गए ।
उसी मुहल्ले में उसकी बिरादरी में, कितनी ही औरतें थीं, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी-सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं, इसलिए अब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर। वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनंद मिलता था । उसकी वंचित लालसा, जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे संभव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया बूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साँड़ बनने पर उतारू हो गया है ।
मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा-कैसा साँड़! बात क्या है ?
‘तू रूपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता? उस पर कहता है कैसा साँड़? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े रँगाए जाते है।’
मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया—अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे, तो लाऊँगा ? अपनी धोती रँगने को दी, उससे रँगाई मांगता ?
‘मुहल्ले में एक तू ही धन्नासेठ है! और किसी से उसने क्यों न कहा?’
‘यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।’
‘तुझे अब छैला बनने की सूझती है । घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’
‘यहाँ पान किसके लिए लाता ?’
‘क्या तेरे लिखे घर में सब मर गए ?’
‘मैं न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।’
‘संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?’
‘शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।’
बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे में उन साधनों का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दी । उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी चढ़ती जवानी थी । तीन बच्चे भगवान् ने उसके गले मढ़ दिए, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज वह भी ओठ लाल किए, पाँव में महावर लगाए, अनवट-बिछुए पहने मटकती फिरती । यह सब कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है! रुपिया उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, आैर बूटी बुढ़िया है!
बोली-हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे चीथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बड़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती तो, तुम लोगों का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।
मोहन ने डरते-डरते कहा—मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मा!
‘कैसी बात ?’
‘सगाई की।’
‘अगर रुपिया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। राँड़ से इतना भी नहीं देखा जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।’
मोहन ने व्यथित कंठ में कहा,अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जाएगी, तुम अकेली पड़ जाओगी । इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।
‘तू आज से यहीं आँगन में सोया कर।’
‘और गायें-भैंसें बाहर पड़ी रहेंगी ?’
‘पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता।’
‘मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?’
‘हाँ !’
‘तो मैं यहाँ न सोऊँगा।’
‘तो निकल जा घर से।’
‘हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा।’
मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा-मुझे भूख नहीं है! बूटी उसे मनाने न आयी । मोहन का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा। रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर ही दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव वसंत की भाँति आकर उसे पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करना होता, पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या, दे दे कि वह प्रसन्न हो जाए! अब वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाए ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में केसी-कैसी बातें हुई थीं । मोहन ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाहक निकल आएँगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राण में बसा हुआ था-मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको । परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करो, तब भी मोहन हो । उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है!
नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं है । वह रुपिनया के साथ माँ से अलग रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मुहल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है। कहीं अम्मां सुन पावें कि वह रात को रुपिया के द्वार पर गया था, तो परान ही दे दें। दे दें परान! अपने भाग तो नहीं बखानतीं कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है। न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है। वह जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है। बस, यही तो।
चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। रुपिनया आ रही है! हा; वही है।
रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली-सो गए क्या मोहन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?
मोहन नींद का मक्कर किए पड़ा रहा।
रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा-क्या सो गए मोहन ?
उन कोमाल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्घि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी वरदान के लिए सामने खड़ी है। सारा विश्व जैसे नाच रहा है। उसे मालूम हुआ जैसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह एक मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद में चिपटा हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।
रुपिया ने कहा-अभी से सो गए क्या जी ?
मोहन बोला-हाँ, जरा नींद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीं? कहीं अम्मा देख लें, तो मुझे मार ही डालें।
‘तुम आज आये क्यों नहीं?’
‘आज अम्माँ से लड़ाई हो गई।’
‘क्या कहती थीं?’
‘कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी।’
‘तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्यों चिढ़ती हो ?’
‘अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा? वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं। अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा।’
मेरा जी तो न मानेगा।’
‘ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा।’
‘तुम मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ नहीं चाहती।’
‘और अम्माँ जो बिगड़ेंगी।’
‘तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार नहीं करते।
‘मेरा बस होता, तो तुमको अपने परान में रख लेता।’
इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई।
2
मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनंद का सागर-सा भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन आलसी था। घर के काम-धंधे में जी न लगाता था । मोहन को देखते ही वह साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा।
मोहन ने मुस्कराकर कहा-धोती बहुत मैली हो गई है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं देते?
सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गंध आई।
‘धोबिन पैसे माँगती है।’
‘तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?’
‘अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ?’
‘तो मुझसे ले लो!’
यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी। सोहन प्रसन्न हो गया। भाई और माता दोनों ही उसे धिक्कारते रहते थे। बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला। इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चल।
मोहन ने कहा-रहने दो, मैं इसे लिये जाता हूँ।
सोहन ने पगहिया मोहन को देकर फिर पूछा-तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?
जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया था। इसमें क्या रहस्य है, यह मोहन की समझ में नहीं आया। बोला-आग हो तो रख आओ।
मैना सिर के बाल खेले आँगन में बैठी घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते ही उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईधर में बरतन उठाने चली।
मोहन ने पूछा-क्या खेल रही थी मैना ?
मैना डरी हुई बोली-कुछ नहीं तो।
‘तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। जरा बना, देखूँ।’
मैना का रुआंसा चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्द में कितना जादू है! मुँह से निकलते ही जैसे सुगंध फैल गई। जिसने सुना, उसका हृदय खिल उठा। जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा। जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा। चारों ओर चेतनता दौड़ गई। कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं। मोहन का हृदय आज प्रेम से भरा हुआ है। उसमें सुगंध का विकर्षण हो रहा है।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।
मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा-तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले।
मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमाचम करके पानी ले जाएगी।
‘अम्माँ पैसे नहीं देतीं। गुड्डा तो ठीक हो गया है। टीका कैसे भेजूँ?’
‘कितने पैसे लेगी ?’
‘एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग। जोड़े तो रँगे जाएँगे कि नहीं?’
‘तो दो पैसे में तेरा काम चल जाएगा?’
‘हाँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाए।’
मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाए। मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। मोहन ने उसे गोद में उठा लिया। मैना ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी। फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता देने के लिए भागी।
उसी वक्त बूटी गोबर का झाँवा लिये आ पहुंची। मोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली-अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है। भैंस कब दुही जाएगी?
आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया। जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई सोता-सा खुल गया हो। माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झाँवा उसके सिर से उतार लिया।
बूटी ने कहा-रहने दे, रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ।
‘तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुजला लेतीं?’
माता का हृदय वात्सल्य से गदगद हो उठा।
‘तू जा अपना काम देखं मेरे पीछे क्यों पड़ता है!’
‘गोबर निकालने का काम मेरा है।’
‘और दूध कौन दुहेगा ?’
‘वह भी मैं करूँगा !’
‘तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !’
‘जितना कहता हूँ, उतना कर लूँगा।’
‘तो मैं क्या करूँगी ?’
‘तुम लड़कों से काम लो, जो तुम्हारा धर्म है।’
‘मेरी सुनता है कोई?’
3
मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, तो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और थोड़ी-सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़कर बोली-आज पैसे कहीं फालतू मिल गए थे क्या ? इस तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा?
‘मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ। पहले मैं समझता था, तुम पान खातीं ही नहीं।
‘तो अब मैं पान खाऊँगी !’
‘हाँ, और क्या! जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ?’
बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आई, एक नन्ही-सी कोंपल थी; उसके अंदर कितना रस था। उसने मैना और सोहन को एक-एक मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी।
‘मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ।’
‘और तू तो बूढ़ा हो गया, क्यों ?’
‘इन लड़कों क सामने तो बूढ़ा ही हूँ।’
‘लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है।’
मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी। वह केवल मिठाई का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी। मोहन को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने आधा लड्डू तोड़कर मैना को दे दिया। एक मिठाई दोने में बची थी। बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा-लाया भी तो इतनी-सी मिठाई। यह ले ले।
मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा-वह तुम्हारा हिस्सा है अम्मा।
‘तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनंद मिलता है। उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है।’
उसने आधी मिठाई सोहन और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी। आज जीवन में पहली बार उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में मिली। पानदान में कई कुल्हियाँ हैं। और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियाँ भी हैं; ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चाहो, लटकाकर ले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान रखे जाएँगे।
ज्यों ही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारी काटी, पान को भिगोकर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बीड़े के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं कि इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाए। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें मुँह देखा। ओठों पर लाली है। मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही पान खाया है।
धनिया ने आकर कहा-काकी, तनिक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है।
कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव-भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बंद हुए कि नहीं धनिया ?
धनिया ने उदास मन से कहा-नहीं काकी, आज तो दिन-भर दस्त आए। जाने दाँत आ रहे हैं।
‘पानी भर ले तो चल जरा देखूँ, दाँत ही हैं कि कुछ और फसाद है। किसी की नजर-वजर तो नहीं लगी ?’
‘अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो?’
‘चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।’
‘जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है। ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या कहूँ!’
‘कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है।’
‘ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगाएगा!’
‘यही तो तू समझती नहीं। नजर आप ही लग जाती है।’
धनिया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।
‘तू अकेली है। आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा।’
‘नहीं काकी, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।’
बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिया को उसने केवल तितली समझ रखा था।
‘रुपिया!’
‘हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है। झाडू लगा देती है, चौका-बरतन कर देती है, लड़के को सँभालती है। गाढ़े समय कौन, किसी की बात पूछता है काकी !’
‘उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी न मिलती होगी।’
‘यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी! मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया। बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ, जब तक जीऊँगी, उसका जस गाऊँगी।’
‘तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?’
‘मैं इन बातो में नहीं पड़ती काकी! फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं चाहता ? खाने-पहनने की यही तो उमिर है।’
धनिया ने बच्चे को खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रखा, पेट में धीरे-धीरे उँगली गड़ाकर देखा। नाभी पर हींग का लेप करने को कहा। रुपिया बेनिया लाकर उसे झलने लगी।
बूटी ने कहा-ला बेनिया मुझे दे दे।
‘मैं डुला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ?’
‘तू दिन-भर यहाँ काम-धंधा करती है। थक गई होगी।’
‘तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे, वह बिना गाली के बात नहीं करती। मारे डर के तुम्हारे पास न आयी।’
बूटी मुस्कारायी।
‘लोग झूठ तो नहीं कहते।’
‘मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?’
कह तो दी होगी। दूसरी लड़की होती, तो मेरी ओर से मुंह फेर लेती। मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती। इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो। हो सकता हे कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हाँ, यही बात है।
आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब करेगी? शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाती हों कि जरा इस दूकान की सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उनके रूप की बखान करें। किसे दूसरों की आँखों में छुप जाने की लालसा नहीं होती ? बूटी का यौवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है।
उस दिन से रूपा प्राय: दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाए या बेरंगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती-बहू-बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है।
रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ! लोगों को इशारा मिल जाए, तो भौंरों की तरह तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगें।
बूटी ने मीठे तिरस्कार से कहा-चल, मैं तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ?
‘अम्माँ तो बूढ़ी हो गई।’
‘तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं?’
‘हाँ ऐसा, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी।’
बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से ददेखकर पूछा-अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूँ ?
रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई।
आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा-कुछ रुपये-पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ।
एक्ट्रेस
रंगमंच का परदा गिर गया। तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। जिस वक्त वह शकुंतला के रुप में राजा दुष्यन्त के सम्मुख खड़ी ग्लानि, वेदना, और तिरस्कार से उत्तेजित भावों को आग्नेय शब्दों में प्रकट कर रही थी, दर्शक-वृन्द शिष्टता के नियमों की उपेक्षा करके मंच की ओर उन्मत्तों की भॉँति दौड़ पड़े थे और तारादेवी का यशोगान करने लगे थे। कितने ही तो स्टेज पर चढ़ गये और तारादेवी के चरणों पर गिर पड़े। सारा स्टेज फूलों से पट गया, आभूषणें की वर्षा होने लगी। यदि उसी क्षण मेनका का विमान नीचे आ कर उसे उड़ा न ले जाता, तो कदाचित उस धक्कम-धक्के में दस-पॉँच आदमियों की जान पर बन जाती। मैनेजर ने तुरन्त आकर दर्शकों को गुण-ग्राहकता का धन्यवाद दिया और वादा भी किया कि दूसरे दिन फिर वही तमाशा होगा। तब लोगों का मोहान्माद शांत हुआ। मगर एक युवक उस वक्त भी मंच पर खड़ा रहा। लम्बे कद का था, तेजस्वी मुद्रा, कुन्दन का-सा देवताओं का-सा स्वरुप, गठी हुई देह, मुख से एक ज्योति-सी प्रस्फुटित हो रही थी। कोई राजकुमार मालूम होता था।
जब सारे दर्शकगण बाहर निकल गये, उसने मैनेजर से पूछा—क्या तारादेवी से एक क्षण के लिए मिल सकता हूँ?
मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से कहा—हमारे यहॉँ ऐसा नियम नहीं है।
युवक ने फिर पूछा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते हैं?
मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से कहा—जी नहीं। क्षमा कीजिएगा। यह हमारे नियमों के विरुद्ध है।
युवक ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने पूछा—जरा ठहर जाइये, आपका कार्ड?
युवक ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकल कर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने पुर्जे को उड़ती हुई निगाह से देखा—कुंवर निर्मलकान्त चौधरी ओ. बी. ई.। मैनेजर की कठोर मुद्रा कोमल हो गयी। कुंवर निर्मलकान्त—शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकेदार, साहित्य के उज्जवल रत्न, संगीत के सिद्धहस्त आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस लाख सालाना के नफेदार, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाऍं चलती थीं—इस समय एक क्षुद्र प्रार्थी के रुप में खड़े थे। मैनेजर अपने उपेक्षा-भाव पर लज्जित हो गया। विनम्र शब्दों में बोला—क्षमा कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं अभी तारादेवी के पास हुजूर का कार्ड लिए जाता हूँ।
कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा—नहीं, अब रहने ही दीजिए, मैं कल पॉँच बजे आऊँगा। इस वक्त तारादेवी को कष्ट होगा। यह उनके विश्राम का समय है।
मैनेजर—मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतना कष्ट सहर्ष सह लेंगी, मैं एक मिनट में आता हूँ।
किन्तु कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपनी आतुरता पर संयम का परदा डालने के लिए विवश थे। मैनेजर को सज्जनता का धन्यवाद दिया। और कल आने का वादा करके चले गये।
2
तारा एक साफ-सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी। रात का वह दृश्य उसकी ऑंखों के सामने नाच रहा था। ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं? कितने मनुष्य उसके दर्शनों के लिए विकल हो रहे हैं? बस, एक-दूसरे पर फाट पड़ते थे। कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था—हॉँ, ठुकरा दिया था। मगर उस समूह में केवल एक दिव्यमूर्ति अविचलित रुप से खड़ी थी। उसकी ऑंखों में कितना गम्भीर अनुराग था, कितना दृढ़ संकल्प ! ऐसा जान पड़ता था मानों दोनों नेत्र उसके हृदय में चुभे जा रहे हों। आज फिर उस पुरुष के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन यदि आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नव-विकसित पुष्प तैंतीस बसंतों की बहार देख चुका है। वह कांति, वह कोमलता, वह चपलता, वह माधुर्य किसी नवयौवना को लज्जित कर सकता था। तारा एक बार फिर हृदय में प्रेम दीपक जला बैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसको प्रेम का कटु अनुभव हुआ था। तब से वह एक प्रकार का वैधव्य-जीवन व्यतीत करती रही। कितने प्रेमियों ने अपना हृदय उसको भेंट करना चाहा था; पर उसने किसी की ओर ऑंख उठाकर भी न देखा था। उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका संयम उसके हाथ से निकल गया। एक बार फिर आज उसे हृदय में उसी मधुर वेदना का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था। एक पुरुष का सौम्य स्वरुप उसकी ऑंखें में बस गया, हृदय पट पर खिंच गया। उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी पुरुष को उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो कदाचित उधर ध्यान भी न करती। पर उसे अपने सम्मुख प्रेम का उपहार हाथ में लिए देखकर वह स्थिर न रह सकी।
सहसा दाई ने आकर कहा—बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?
तारा ने कहा—नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं।
‘एक ढेर का ढेर तो लगा है बाई जी, कहॉँ तक गिनाऊँ—अशर्फियॉँ हैं, ब्रूचेज बाल के पिन, बटन, लाकेट, अँगूठियॉँ सभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब संदूक में रख दिया है।’
‘अच्छा, वह संदूक मेरे पास ला।’ दाई ने सन्दूक लाकर मेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक पत्र लाकर तारा को दिया। तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से देखा—कुंवर निर्मलकान्त ओ. बी. ई.। लड़के से पूछा—यह पत्र किसने दिया। वह तो नहीं, जो रेशमी साफा बॉँधे हुए थे?
लड़के ने केवल इतना कहा—मैनेजर साहब ने दिया है। और लपका हुआ बाहर चला गया।
संदूक में सबसे पहले डिब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था। डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी था। तारा ने लपक कर उसे निकाल लिया और पढ़ा—कुंवर निर्मलकान्त...। कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़े वेग से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गयीं। मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला—मैं रात की सफलता पर आपको बधाई देता हूँ।
तारा ने खड़े-खड़े पूछा—कुँवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का पत्र दे कर भाग गया। मैं उससे कुछ पूछ न सकी।
‘कुँवर साहब का रुक्का तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मिला था।’
‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज दिया?’
मैनेजर ने दबी जबान से कहा—मैंने समझा, तुम आराम कर रही होगी, कष्ट देना उचित न समझा। और भाई, साफ बात यह है कि मैं डर रहा था, कहीं कुँवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बैठूँ। अगर मैं औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो लेता। ऐसा देवरुप पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा। वही जो रेशमी साफा बॉँधे खड़े थे तुम्हारे सामने। तुमने भी तो देखा था।
तारा ने मानो अर्धनिद्रा की दशा में कहा—हॉँ, देखा तो था—क्या यह फिर आयेंगे?
हॉँ, आज पॉँच बजे शाम को। बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस।’
‘आज मैं रिहर्सल में न आऊँगी।’
3
कुँवर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी है और दाई उसका श्रृंगार कर रही है। श्रृंगार भी इस जमाने में एक विद्या है। पहले परिपाटी के अनुसार ही श्रृंगार किया जाता था। कवियों, चित्रकारों और रसिकों ने श्रृंगार की मर्यादा-सी बॉँध दी थी। ऑंखों के लिए काजल लाजमी था, हाथों के लिए मेंहदी, पाँव के लिए महावर। एक-एक अंग एक-एक आभूषण के लिए निर्दिष्ट था। आज वह परिपाटी नहीं रही। आज प्रत्येक रमणी अपनी सुरुचि सुबुद्वि और तुलनात्मक भाव से श्रृंगार करती है। उसका सौंदर्य किस उपाय से आकर्षकता की सीमा पर पहुँच सकता है, यही उसका आदर्श होता हैं तारा इस कला में निपुण थी। वह पन्द्रह साल से इस कम्पनी में थी और यह समस्त जीवन उसने पुरुषों के हृदय से खेलने ही में व्यतीत किया था। किस चिवतन से, किस मुस्कान से, किस अँगड़ाई से, किस तरह केशों के बिखेर देने से दिलों का कत्लेआम हो जाता है; इस कला में कौन उससे बढ़ कर हो सकता था! आज उसने चुन-चुन कर आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने अस्त्रों से सज कर वह दीवानखाने में आयी, तो जान पड़ा मानों संसार का सारा माधुर्य उसकी बलाऍं ले रहा है। वह मेज के पास खड़ी होकर कुँवर साहब का कार्ड देख रही थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर लगे हुए थे। वह चाहती थी कि कुँवर साहब इसी वक्त आ जाऍं और उसे इसी अन्दाज से खड़े देखें। इसी अन्दाज से वह उसके अंग प्रत्यंगों की पूर्ण छवि देख सकते थे। उसने अपनी श्रृंगार कला से काल पर विजय पा ली थी। कौन कह सकता था कि यह चंचल नवयौवन उस अवस्था को पहुँच चुकी है, जब हृदय को शांति की इच्छा होती है, वह किसी आश्रम के लिए आतुर हो उठता है, और उसका अभिमान नम्रता के आगे सिर झुका देता है।
तारा देवी को बहुत इन्तजार न करना पड़ा। कुँवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी उत्सुक थे। दस ही मिनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा सँभल गयी। एक क्षण में कुँवर साहब ने कमरे में प्रवेश किया। तारा शिष्टाचार के लिए हाथ मिलाना भी भूल गयी, प्रौढ़ावस्था में भी प्रेमी की उद्विग्नता और असावधानी कुछ कम नहीं होती। वह किसी सलज्जा युवती की भॉँति सिर झुकाए खड़ी रही।
कुँवर साहब की निगाह आते ही उसकी गर्दन पर पड़ी। वह मोतियों का हार, जो उन्होंने रात को भेंट किया था, चमक रहा था। कुँवर साहब को इतना आनन्द और कभी न हुआ। उन्हें एक क्षण के लिए ऐसा जान पड़ा मानों उसके जीवन की सारी अभिलाषा पूरी हो गयी। बोले—मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट दिया, क्षमा कीजिएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा? तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को सँभाल कर कहा—इससे ज्यादा आराम और क्या हो सकता कि आपके दर्शन हुए। मैं इस उपहार के लिए और क्या आपको मनों धन्यवाद देती हूँ। अब तो कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी?
निर्मलकान्त ने मुस्कराकर कहा—कभी-कभी नहीं, रोज। आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस डयोढ़ी पर सिर को झुका ही जाऊँगा।
तारा ने भी मुस्करा कर उत्तर दिया—उसी वक्त तक जब तक कि मनोरंजन की कोई नयी वस्तु नजर न आ जाय! क्यों?
‘मेरे लिए यह मनोरंजन का विषय नहीं, जिंदगी और मौत का सवाल है। हॉँ, तुम इसे विनोद समझ सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीं। तुम्हारे मनोरंजन के लिए मेरे प्राण भी निकल जायें, तो मैं अपना जीवन सफल समझूँगा।
दोंनों तरफ से इस प्रीति को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल भोज का न्योता दे कर कुँवर साहब विदा हुए।
4
एक महीना गुजर गया, कुँवर साहब दिन में कई-कई बार आते। उन्हें एक क्षण का वियोग भी असह्य था। कभी दोनों बजरे पर दरिया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पार्कों में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना होता, नित्य नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुँवर साहब को फॉँस लिया और दोनों हाथों से सम्पत्ति लूट रही है। पर तारा के लिए कुँवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पत्ति थी, जिसके सामने दुनिया-भर की दौलत देय थी। उन्हें अपने सामने देखकर उसे किसी वस्तु की इच्छा न होती थी।
मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घूमने पर भी तारा को वह वस्तु न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा लोलुप हो रही थी। वह कुँवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निष्कपट प्रेम की बातें रोज सुनती थी, पर उसमें ‘विवाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिलता हो। ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज से तृप्ति हो सकती है? प्यास बुझाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे मूल्यवान पदार्थ है। वह जानती थी कि कुँवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे देंगे, लेकिन विवाह की बात क्यों उनकी जबान से नहीं मिलती? क्या इस विष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह देना सम्भव था? फिर क्या वह उसको केवल विनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा जाएगा। कुँवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था। किसी शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ दिन पहले शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर अपनी राह लेती। किन्तु प्रेम का बदला प्रेम है, कुँवर साहब के साथ वह यह निर्लज्ज जीवन न व्यतीत कर सकती थी।
उधर कुँवर साहब के भाई बन्द भी गाफिल न थे, वे किसी भॉँति उन्हें ताराबाई के पंजे से छुड़ाना चाहते थे। कहीं कुंवर साहब का विवाह ठीक कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने की आशा थी और यही उन लोगों ने किया। उन्हें यह भय तो न था कि कुंवर साहब इस ऐक्ट्रेस से विवाह करेंगे। हॉँ, यह भय अवश्य था कि कही रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दें, या उसके आने वाले बच्चों को रियासत का मालिक बना दें। कुँवर साहब पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे। यहॉँ तक कि योरोपियन अधिकारियों ने भी उन्हें विवाह कर लेने की सलाह दी। उस दिन संध्या समय कुंवर साहब ने ताराबाई के पास जाकर कहा—तारा, देखो, तुमसे एक बात कहता हूँ, इनकार न करना। तारा का हृदय उछलने लगा। बोली—कहिए, क्या बात है? ऐसी कौन वस्तु है, जिसे आपकी भेंट करके मैं अपने को धन्य समझूँ?
बात मुँह से निकलने की देर थी। तारा ने स्वीकार कर लिया और हर्षोन्माद की दशा में रोती हुई कुंवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी।
5
एक क्षण के बाद तारा ने कहा—मैं तो निराश हो चली थी। आपने बढ़ी लम्बी परीक्षा ली।
कुंवर साहब ने जबान दॉँतों-तले दबाई, मानो कोई अनुचित बात सुन ली हो!
‘यह बात नहीं है तारा! अगर मुझे विश्वास होता कि तुम मेरी याचना स्वीकार कर लोगी, तो कदाचित पहले ही दिन मैंने भिक्षा के लिए हाथ फैलाया होता, पर मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीं पाता था। तुम सदगुणों की खान हो, और मैं...मैं जो कुछ हूँ, वह तुम जानती ही हो। मैंने निश्चय कर लिया था कि उम्र भर तुम्हारी उपासना करता रहूँगा। शायद कभी प्रसन्न हो कर तुम मुझे बिना मॉँगे ही वरदान दे दो। बस, यही मेरी अभिलाषा थी! मुझमें अगर कोई गुण है, तो यही कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। जब तुम साहित्य या संगीत या धर्म पर अपने विचार प्रकट करने लगती हो, तो मैं दंग रह जाता हूँ और अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हो जाता हूँ। तुम मेरे लिए सांसारिक नहीं, स्वर्गीय हो। मुझे आश्चर्य यही है कि इस समय मैं मारे खुशी के पागल क्यों नहीं हो जाता।’
कुंवर साहब देर तक अपने दिल की बातें कहते रहे। उनकी वाणी कभी इतनी प्रगल्भ न हुई थी!
तारा सिर झुकाये सुनती थी, पर आनंद की जगह उसके मुख पर एक प्रकार का क्षोभ—लज्जा से मिला हुआ—अंकित हो रहा था। यह पुरुष इतना सरल हृदय, इतना निष्कपट है? इतना विनीत, इतना उदार!
सहसा कुँवर साहब ने पूछा—तो मेरे भाग्य किस किस दिन उदय होंगे, तारा? दया करके बहुत दिनों के लिए न टालना।
तारा ने कुँवर साहब की सरलता से परास्त होकर चिंतित स्वर में कहा—कानून का क्या कीजिएगा? कुँवर साहब ने तत्परता से उत्तर दिया—इस विषय में तुम निश्चंत रहो तारा, मैंने वकीलों से पूछ लिया है। एक कानून ऐसा है जिसके अनुसार हम और तुम एक प्रेम-सूत्र में बँध सकते हैं। उसे सिविल-मैरिज कहते हैं। बस, आज ही के दिन वह शुभ मुहूर्त आयेगा, क्यों?
तारा सिर झुकाये रही। बोल न सकी।
‘मैं प्रात:काल आ जाऊँगा। तैयार रहना।’
तारा सिर झुकाये रही। मुँह से एक शब्द न निकला।
कुंवर साहब चले गये, पर तारा वहीं मूर्ति की भॉँति बैठी रही। पुरुषों के हृदय से क्रीड़ा करनेवाली चतुर नारी क्यों इतनी विमूढ़ हो गयी है!
6
विवाह का एक दिन और बाकी है। तारा को चारों ओर से बधाइयॉँ मिल रही हैं। थिएटर के सभी स्त्री-पुरुषों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे अच्छे-अच्छे उपहार दिये हैं, कुँवर साहब ने भी आभूषणों से सजा हुआ एक सिंगारदान भेंट किया हैं, उनके दो-चार अंतरंग मित्रों ने भॉँति-भॉँति के सौगात भेजे हैं; पर तारा के सुन्दर मुख पर हर्ष की रेखा भी नहीं नजर आती। वह क्षुब्ध और उदास है। उसके मन में चार दिनों से निरंतर यही प्रश्न उठ रहा है—क्या कुँवर के साथ विश्वासघात करें? जिस प्रेम के देवता ने उसके लिए अपने कुल-मर्यादा को तिलांजलि दे दी, अपने बंधुजनों से नाता तोड़ा, जिसका हृदय हिमकण के समान निष्कलंक है, पर्वत के समान विशाल, उसी से कपट करे! नहीं, वह इतनी नीचता नहीं कर सकती , अपने जीवन में उसने कितने ही युवकों से प्रेम का अभिनय किया था, कितने ही प्रेम के मतवालों को वह सब्ज बाग दिखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दुविधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका तिरस्कार न किया था। क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और था कि ऐसा अनुराग उसे और कहीं न मिला था।
क्या वह कुँवर साहब का जीवन सुखी बना सकती है? हॉँ, अवश्य। इस विषय में उसे लेशमात्र भी संदेह नहीं था। भक्ति के लिए ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो असाध्य हो; पर क्या वह प्रकृति को धोखा दे सकती है। ढलते हुए सूर्य में मध्याह्न का-सा प्रकाश हो सकता है? असम्भव। वह स्फूर्ति, वह चपलता, वह विनोद, वह सरल छवि, वह तल्लीनता, वह त्याग, वह आत्मविश्वास वह कहॉँ से लायेगी, जिसके सम्मिश्रण को यौवन कहते हैं? नहीं, वह कितना ही चाहे, पर कुंवर साहब के जीवन को सुखी नहीं बना सकतीं बूढ़ा बैल कभी जवान बछड़ों के साथ नहीं चल सकता।
आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों कृत्रिम साधनों से, बनावटी सिंगार से कुंवर को धोखें में डाला? अब इतना सब कुछ हो जाने पर वह किस मुँह से कहेगी कि मैं रंगी हुई गुड़िया हूँ, जबानी मुझसे कब की विदा हो चुकी, अब केवल उसका पद-चिह्न रह गया है।
रात के बारह बज गये थे। तारा मेज के सामने इन्हीं चिंताओं में मग्न बैठी हुई थी। मेज पर उपहारों के ढेर लगे हुए थे; पर वह किसी चीज की ओर ऑंख उठा कर भी न देखती थी। अभी चार दिन पहले वह इन्हीं चीजों पर प्राण देती थी, उसे हमेशा ऐसी चीजों की तलाश रहती थी, जो काल के चिह्नों को मिटा सकें, पर अब उन्हीं चीजों से उसे घृणा हो रही है। प्रेम सत्य है— और सत्य और मिथ्या, दोनों एक साथ नहीं रह सकते।
तारा ने सोचा—क्यों न यहॉँ से कहीं भाग जाय? किसी ऐसी जगह चली जाय, जहॉँ कोई उसे जानता भी न हो। कुछ दिनों के बाद जब कुंवर का विवाह हो जाय, तो वह फिर आकर उनसे मिले और यह सारा वृत्तांत उनसे कह सुनाए। इस समय कुंवर पर वज्रपात-सा होगा—हाय न-जाने उनकी दशा होगी; पर उसके लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है। अब उनके दिन रो-रोकर कटेंगे, लेकिन उसे कितना ही दु:ख क्यों न हो, वह अपने प्रियतम के साथ छल नहीं कर सकती। उसके लिए इस स्वर्गीय प्रेम की स्मृति, इसकी वेदना ही बहुत है। इससे अधिक उसका अधिकार नहीं।
दाई ने आकर कहा—बाई जी, चलिए कुछ थोड़ा-सा भोजन कर लीजिए अब तो बारह बज गए।
तारा ने कहा—नहीं, जरा भी भूख नहीं। तुम जाकर खा लो।
दाई—देखिए, मुझे भूल न जाइएगा। मैं भी आपके साथ चलूँगी।
तारा—अच्छे-अच्छे कपड़े बनवा रखे हैं न?
दाई—अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपड़े लेकर क्या करना है? आप अपना कोई उतारा दे दीजिएगा।
दाई चली गई। तारा ने घड़ी की ओर देखा। सचमुच बारह बज गए थे। केवल छह घंटे और हैं। प्रात:काल कुंवर साहब उसे विवाह-मंदिर में ले-जाने के लिए आ जायेंगे। हाय! भगवान, जिस पदार्थ से तुमने इतने दिनों तक उसे वंचित रखा, वह आज क्यों सामने लाये? यह भी तुम्हारी क्रीड़ा हैं
तारा ने एक सफद साड़ी पहन ली। सारे आभूषण उतार कर रख दिये। गर्म पानी मौजूद था। साबुन और पानी से मुँह धोया और आईने के सम्मुख जा कर खड़ी हो गयी—कहॉँ थी वह छवि, वह ज्योति, जो ऑंखों को लुभा लेती थी! रुप वही था, पर क्रांति कहॉँ? अब भी वह यौवन का स्वॉँग भर सकती है?
तारा को अब वहॉँ एक क्षण भी और रहना कठिन हो गया। मेज पर फैले हुए आभूषण और विलास की सामग्रियॉँ मानों उसे काटने लगी। यह कृत्रिम जीवन असह्य हो उठा, खस की टटिटयों और बिजली के पंखों से सजा हुआ शीतल भवन उसे भट्टी के समान तपाने लगा।
उसने सोचा—कहॉँ भाग कर जाऊँ। रेल से भागती हूँ, तो भागने ना पाऊँगी। सबेरे ही कुँवर साहब के आदमी छूटेंगे और चारों तरफ मेरी तलाश होने लगेगी। वह ऐसे रास्ते से जायगी, जिधर किसी का ख्याल भी न जाय।
तारा का हृदय इस समय गर्व से छलका पड़ता था। वह दु:खी न थी, निराश न थी। फिर कुंवर साहब से मिलेगी, किंतु वह निस्वार्थ संयोग होगा। प्रेम के बनाये हुए कर्त्तव्य मार्ग पर चल रही है, फिर दु:ख क्यों हो और निराश क्यों हो?
सहसा उसे ख्याल आया—ऐसा न हो, कुँवर साहब उसे वहॉँ न पा कर शेक-विह्वलता की दशा में अनर्थ कर बैठें। इस कल्पना से उसके रोंगटे खड़े हो गये। एक क्षण के के लिए उसका मन कातर हो उठा। फिर वह मेज पर जा बैठी, और यह पत्र लिखने लगी—
प्रियतम, मुझे क्षमा करना। मैं अपने को तुम्हारी दासी बनने के योग्य नहीं पाती। तुमने मुझे प्रेम का वह स्वरुप दिखा दिया, जिसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी। मेरे लिए इतना ही बहुत है। मैं जब जीऊँगी, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूँगी। मुझे ऐसा जान पड़ रहा है कि प्रेम की स्मृति में प्रेम के भोग से कही अधिक माधुर्य और आनन्द है। मैं फिर आऊँगी, फिर तुम्हारे दर्शन करुँगी; लेकिन उसी दशामें जब तुम विवाह कर लोगे। यही मेरे लौटने की शर्त है। मेरे प्राणें के प्राण, मुझसे नाराज न होना। ये आभूषण जो तुमने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नववधू के लिए छोड़े जाती हूँ। केवल वह मोतियों को हार, जो तुम्हारे प्रेम का पहला उपहार है, अपने साथ लिये जाती हूँ। तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, मेरी तलाश न करना। मैं तुम्हरी हूँ और सदा तुम्हारी रहूँगा.....।
तुम्हारी,
तारा
यह पत्र लिखकर तारा ने मेज पर रख दिया, मोतियों का हार गले में डाला और बाहर निकल आयी। थिएटर हाल से संगीत की ध्वनि आ रही थी। एक क्षण के लिए उसके पैर बँध गये। पन्द्रह वर्षो का पुराना सम्बन्ध आज टूट रहा था। सहसा उसने मैनेजर को आते देखा। उसका कलेजा धक से हो गया। वह बड़ी तेजी से लपककर दीवार की आड़ में खड़ी हो गयी। ज्यों ही मैनेजर निकल गया, वह हाते के बाहर आयी और कुछ दूर गलियों में चलने के बाद उसने गंगा का रास्ता पकड़ा।
गंगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-पॉँच साधु-बैरागी धूनियों के सामने लेटे थे। दस-पॉँच यात्री कम्बल जमीन पर बिछाये सो रहे थे। गंगा किसी विशाल सर्प की भॉँति रेंगती चली जाती थी। एक छोटी-सी नौका किनारे पर लगी हुई थी। मल्लाहा नौका में बैठा हुआ था।
तारा ने मल्लाहा को पुकारा—ओ मॉँझी, उस पार नाव ले चलेगा?
मॉँझी ने जवाब दिया—इतनी रात गये नाव न जाई।
मगर दूनी मजदूरी की बात सुनकर उसे डॉँड़ उठाया और नाव को खोलता हुआ बोला—सरकार, उस पार कहॉँ जैहैं?
‘उस पार एक गॉँव में जाना है।’
‘मुदा इतनी रात गये कौनों सवारी-सिकारी न मिली।’
‘कोई हर्ज नहीं, तुम मझे उस पर पहुँचा दो।’
मॉँझी ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका मंद गति से चलने लगी, मानों जीव स्वप्न-साम्राज्य में विचर रहा हो।
इसी समय एकादशी का चॉँद, पृथ्वी से उस पार, अपनी उज्जवल नौका खेता हुआ निकला और व्योम-सागर को पार करने लगा।
जब सारे दर्शकगण बाहर निकल गये, उसने मैनेजर से पूछा—क्या तारादेवी से एक क्षण के लिए मिल सकता हूँ?
मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से कहा—हमारे यहॉँ ऐसा नियम नहीं है।
युवक ने फिर पूछा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते हैं?
मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से कहा—जी नहीं। क्षमा कीजिएगा। यह हमारे नियमों के विरुद्ध है।
युवक ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने पूछा—जरा ठहर जाइये, आपका कार्ड?
युवक ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकल कर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने पुर्जे को उड़ती हुई निगाह से देखा—कुंवर निर्मलकान्त चौधरी ओ. बी. ई.। मैनेजर की कठोर मुद्रा कोमल हो गयी। कुंवर निर्मलकान्त—शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकेदार, साहित्य के उज्जवल रत्न, संगीत के सिद्धहस्त आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस लाख सालाना के नफेदार, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाऍं चलती थीं—इस समय एक क्षुद्र प्रार्थी के रुप में खड़े थे। मैनेजर अपने उपेक्षा-भाव पर लज्जित हो गया। विनम्र शब्दों में बोला—क्षमा कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं अभी तारादेवी के पास हुजूर का कार्ड लिए जाता हूँ।
कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा—नहीं, अब रहने ही दीजिए, मैं कल पॉँच बजे आऊँगा। इस वक्त तारादेवी को कष्ट होगा। यह उनके विश्राम का समय है।
मैनेजर—मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतना कष्ट सहर्ष सह लेंगी, मैं एक मिनट में आता हूँ।
किन्तु कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपनी आतुरता पर संयम का परदा डालने के लिए विवश थे। मैनेजर को सज्जनता का धन्यवाद दिया। और कल आने का वादा करके चले गये।
2
तारा एक साफ-सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी। रात का वह दृश्य उसकी ऑंखों के सामने नाच रहा था। ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं? कितने मनुष्य उसके दर्शनों के लिए विकल हो रहे हैं? बस, एक-दूसरे पर फाट पड़ते थे। कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था—हॉँ, ठुकरा दिया था। मगर उस समूह में केवल एक दिव्यमूर्ति अविचलित रुप से खड़ी थी। उसकी ऑंखों में कितना गम्भीर अनुराग था, कितना दृढ़ संकल्प ! ऐसा जान पड़ता था मानों दोनों नेत्र उसके हृदय में चुभे जा रहे हों। आज फिर उस पुरुष के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन यदि आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नव-विकसित पुष्प तैंतीस बसंतों की बहार देख चुका है। वह कांति, वह कोमलता, वह चपलता, वह माधुर्य किसी नवयौवना को लज्जित कर सकता था। तारा एक बार फिर हृदय में प्रेम दीपक जला बैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसको प्रेम का कटु अनुभव हुआ था। तब से वह एक प्रकार का वैधव्य-जीवन व्यतीत करती रही। कितने प्रेमियों ने अपना हृदय उसको भेंट करना चाहा था; पर उसने किसी की ओर ऑंख उठाकर भी न देखा था। उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका संयम उसके हाथ से निकल गया। एक बार फिर आज उसे हृदय में उसी मधुर वेदना का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था। एक पुरुष का सौम्य स्वरुप उसकी ऑंखें में बस गया, हृदय पट पर खिंच गया। उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी पुरुष को उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो कदाचित उधर ध्यान भी न करती। पर उसे अपने सम्मुख प्रेम का उपहार हाथ में लिए देखकर वह स्थिर न रह सकी।
सहसा दाई ने आकर कहा—बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?
तारा ने कहा—नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं।
‘एक ढेर का ढेर तो लगा है बाई जी, कहॉँ तक गिनाऊँ—अशर्फियॉँ हैं, ब्रूचेज बाल के पिन, बटन, लाकेट, अँगूठियॉँ सभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब संदूक में रख दिया है।’
‘अच्छा, वह संदूक मेरे पास ला।’ दाई ने सन्दूक लाकर मेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक पत्र लाकर तारा को दिया। तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से देखा—कुंवर निर्मलकान्त ओ. बी. ई.। लड़के से पूछा—यह पत्र किसने दिया। वह तो नहीं, जो रेशमी साफा बॉँधे हुए थे?
लड़के ने केवल इतना कहा—मैनेजर साहब ने दिया है। और लपका हुआ बाहर चला गया।
संदूक में सबसे पहले डिब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था। डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी था। तारा ने लपक कर उसे निकाल लिया और पढ़ा—कुंवर निर्मलकान्त...। कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़े वेग से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गयीं। मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला—मैं रात की सफलता पर आपको बधाई देता हूँ।
तारा ने खड़े-खड़े पूछा—कुँवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का पत्र दे कर भाग गया। मैं उससे कुछ पूछ न सकी।
‘कुँवर साहब का रुक्का तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मिला था।’
‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज दिया?’
मैनेजर ने दबी जबान से कहा—मैंने समझा, तुम आराम कर रही होगी, कष्ट देना उचित न समझा। और भाई, साफ बात यह है कि मैं डर रहा था, कहीं कुँवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बैठूँ। अगर मैं औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो लेता। ऐसा देवरुप पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा। वही जो रेशमी साफा बॉँधे खड़े थे तुम्हारे सामने। तुमने भी तो देखा था।
तारा ने मानो अर्धनिद्रा की दशा में कहा—हॉँ, देखा तो था—क्या यह फिर आयेंगे?
हॉँ, आज पॉँच बजे शाम को। बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस।’
‘आज मैं रिहर्सल में न आऊँगी।’
3
कुँवर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी है और दाई उसका श्रृंगार कर रही है। श्रृंगार भी इस जमाने में एक विद्या है। पहले परिपाटी के अनुसार ही श्रृंगार किया जाता था। कवियों, चित्रकारों और रसिकों ने श्रृंगार की मर्यादा-सी बॉँध दी थी। ऑंखों के लिए काजल लाजमी था, हाथों के लिए मेंहदी, पाँव के लिए महावर। एक-एक अंग एक-एक आभूषण के लिए निर्दिष्ट था। आज वह परिपाटी नहीं रही। आज प्रत्येक रमणी अपनी सुरुचि सुबुद्वि और तुलनात्मक भाव से श्रृंगार करती है। उसका सौंदर्य किस उपाय से आकर्षकता की सीमा पर पहुँच सकता है, यही उसका आदर्श होता हैं तारा इस कला में निपुण थी। वह पन्द्रह साल से इस कम्पनी में थी और यह समस्त जीवन उसने पुरुषों के हृदय से खेलने ही में व्यतीत किया था। किस चिवतन से, किस मुस्कान से, किस अँगड़ाई से, किस तरह केशों के बिखेर देने से दिलों का कत्लेआम हो जाता है; इस कला में कौन उससे बढ़ कर हो सकता था! आज उसने चुन-चुन कर आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने अस्त्रों से सज कर वह दीवानखाने में आयी, तो जान पड़ा मानों संसार का सारा माधुर्य उसकी बलाऍं ले रहा है। वह मेज के पास खड़ी होकर कुँवर साहब का कार्ड देख रही थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर लगे हुए थे। वह चाहती थी कि कुँवर साहब इसी वक्त आ जाऍं और उसे इसी अन्दाज से खड़े देखें। इसी अन्दाज से वह उसके अंग प्रत्यंगों की पूर्ण छवि देख सकते थे। उसने अपनी श्रृंगार कला से काल पर विजय पा ली थी। कौन कह सकता था कि यह चंचल नवयौवन उस अवस्था को पहुँच चुकी है, जब हृदय को शांति की इच्छा होती है, वह किसी आश्रम के लिए आतुर हो उठता है, और उसका अभिमान नम्रता के आगे सिर झुका देता है।
तारा देवी को बहुत इन्तजार न करना पड़ा। कुँवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी उत्सुक थे। दस ही मिनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा सँभल गयी। एक क्षण में कुँवर साहब ने कमरे में प्रवेश किया। तारा शिष्टाचार के लिए हाथ मिलाना भी भूल गयी, प्रौढ़ावस्था में भी प्रेमी की उद्विग्नता और असावधानी कुछ कम नहीं होती। वह किसी सलज्जा युवती की भॉँति सिर झुकाए खड़ी रही।
कुँवर साहब की निगाह आते ही उसकी गर्दन पर पड़ी। वह मोतियों का हार, जो उन्होंने रात को भेंट किया था, चमक रहा था। कुँवर साहब को इतना आनन्द और कभी न हुआ। उन्हें एक क्षण के लिए ऐसा जान पड़ा मानों उसके जीवन की सारी अभिलाषा पूरी हो गयी। बोले—मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट दिया, क्षमा कीजिएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा? तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को सँभाल कर कहा—इससे ज्यादा आराम और क्या हो सकता कि आपके दर्शन हुए। मैं इस उपहार के लिए और क्या आपको मनों धन्यवाद देती हूँ। अब तो कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी?
निर्मलकान्त ने मुस्कराकर कहा—कभी-कभी नहीं, रोज। आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस डयोढ़ी पर सिर को झुका ही जाऊँगा।
तारा ने भी मुस्करा कर उत्तर दिया—उसी वक्त तक जब तक कि मनोरंजन की कोई नयी वस्तु नजर न आ जाय! क्यों?
‘मेरे लिए यह मनोरंजन का विषय नहीं, जिंदगी और मौत का सवाल है। हॉँ, तुम इसे विनोद समझ सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीं। तुम्हारे मनोरंजन के लिए मेरे प्राण भी निकल जायें, तो मैं अपना जीवन सफल समझूँगा।
दोंनों तरफ से इस प्रीति को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल भोज का न्योता दे कर कुँवर साहब विदा हुए।
4
एक महीना गुजर गया, कुँवर साहब दिन में कई-कई बार आते। उन्हें एक क्षण का वियोग भी असह्य था। कभी दोनों बजरे पर दरिया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पार्कों में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना होता, नित्य नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुँवर साहब को फॉँस लिया और दोनों हाथों से सम्पत्ति लूट रही है। पर तारा के लिए कुँवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पत्ति थी, जिसके सामने दुनिया-भर की दौलत देय थी। उन्हें अपने सामने देखकर उसे किसी वस्तु की इच्छा न होती थी।
मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घूमने पर भी तारा को वह वस्तु न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा लोलुप हो रही थी। वह कुँवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निष्कपट प्रेम की बातें रोज सुनती थी, पर उसमें ‘विवाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिलता हो। ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज से तृप्ति हो सकती है? प्यास बुझाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे मूल्यवान पदार्थ है। वह जानती थी कि कुँवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे देंगे, लेकिन विवाह की बात क्यों उनकी जबान से नहीं मिलती? क्या इस विष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह देना सम्भव था? फिर क्या वह उसको केवल विनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा जाएगा। कुँवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था। किसी शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ दिन पहले शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर अपनी राह लेती। किन्तु प्रेम का बदला प्रेम है, कुँवर साहब के साथ वह यह निर्लज्ज जीवन न व्यतीत कर सकती थी।
उधर कुँवर साहब के भाई बन्द भी गाफिल न थे, वे किसी भॉँति उन्हें ताराबाई के पंजे से छुड़ाना चाहते थे। कहीं कुंवर साहब का विवाह ठीक कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने की आशा थी और यही उन लोगों ने किया। उन्हें यह भय तो न था कि कुंवर साहब इस ऐक्ट्रेस से विवाह करेंगे। हॉँ, यह भय अवश्य था कि कही रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दें, या उसके आने वाले बच्चों को रियासत का मालिक बना दें। कुँवर साहब पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे। यहॉँ तक कि योरोपियन अधिकारियों ने भी उन्हें विवाह कर लेने की सलाह दी। उस दिन संध्या समय कुंवर साहब ने ताराबाई के पास जाकर कहा—तारा, देखो, तुमसे एक बात कहता हूँ, इनकार न करना। तारा का हृदय उछलने लगा। बोली—कहिए, क्या बात है? ऐसी कौन वस्तु है, जिसे आपकी भेंट करके मैं अपने को धन्य समझूँ?
बात मुँह से निकलने की देर थी। तारा ने स्वीकार कर लिया और हर्षोन्माद की दशा में रोती हुई कुंवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी।
5
एक क्षण के बाद तारा ने कहा—मैं तो निराश हो चली थी। आपने बढ़ी लम्बी परीक्षा ली।
कुंवर साहब ने जबान दॉँतों-तले दबाई, मानो कोई अनुचित बात सुन ली हो!
‘यह बात नहीं है तारा! अगर मुझे विश्वास होता कि तुम मेरी याचना स्वीकार कर लोगी, तो कदाचित पहले ही दिन मैंने भिक्षा के लिए हाथ फैलाया होता, पर मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीं पाता था। तुम सदगुणों की खान हो, और मैं...मैं जो कुछ हूँ, वह तुम जानती ही हो। मैंने निश्चय कर लिया था कि उम्र भर तुम्हारी उपासना करता रहूँगा। शायद कभी प्रसन्न हो कर तुम मुझे बिना मॉँगे ही वरदान दे दो। बस, यही मेरी अभिलाषा थी! मुझमें अगर कोई गुण है, तो यही कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। जब तुम साहित्य या संगीत या धर्म पर अपने विचार प्रकट करने लगती हो, तो मैं दंग रह जाता हूँ और अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हो जाता हूँ। तुम मेरे लिए सांसारिक नहीं, स्वर्गीय हो। मुझे आश्चर्य यही है कि इस समय मैं मारे खुशी के पागल क्यों नहीं हो जाता।’
कुंवर साहब देर तक अपने दिल की बातें कहते रहे। उनकी वाणी कभी इतनी प्रगल्भ न हुई थी!
तारा सिर झुकाये सुनती थी, पर आनंद की जगह उसके मुख पर एक प्रकार का क्षोभ—लज्जा से मिला हुआ—अंकित हो रहा था। यह पुरुष इतना सरल हृदय, इतना निष्कपट है? इतना विनीत, इतना उदार!
सहसा कुँवर साहब ने पूछा—तो मेरे भाग्य किस किस दिन उदय होंगे, तारा? दया करके बहुत दिनों के लिए न टालना।
तारा ने कुँवर साहब की सरलता से परास्त होकर चिंतित स्वर में कहा—कानून का क्या कीजिएगा? कुँवर साहब ने तत्परता से उत्तर दिया—इस विषय में तुम निश्चंत रहो तारा, मैंने वकीलों से पूछ लिया है। एक कानून ऐसा है जिसके अनुसार हम और तुम एक प्रेम-सूत्र में बँध सकते हैं। उसे सिविल-मैरिज कहते हैं। बस, आज ही के दिन वह शुभ मुहूर्त आयेगा, क्यों?
तारा सिर झुकाये रही। बोल न सकी।
‘मैं प्रात:काल आ जाऊँगा। तैयार रहना।’
तारा सिर झुकाये रही। मुँह से एक शब्द न निकला।
कुंवर साहब चले गये, पर तारा वहीं मूर्ति की भॉँति बैठी रही। पुरुषों के हृदय से क्रीड़ा करनेवाली चतुर नारी क्यों इतनी विमूढ़ हो गयी है!
6
विवाह का एक दिन और बाकी है। तारा को चारों ओर से बधाइयॉँ मिल रही हैं। थिएटर के सभी स्त्री-पुरुषों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे अच्छे-अच्छे उपहार दिये हैं, कुँवर साहब ने भी आभूषणों से सजा हुआ एक सिंगारदान भेंट किया हैं, उनके दो-चार अंतरंग मित्रों ने भॉँति-भॉँति के सौगात भेजे हैं; पर तारा के सुन्दर मुख पर हर्ष की रेखा भी नहीं नजर आती। वह क्षुब्ध और उदास है। उसके मन में चार दिनों से निरंतर यही प्रश्न उठ रहा है—क्या कुँवर के साथ विश्वासघात करें? जिस प्रेम के देवता ने उसके लिए अपने कुल-मर्यादा को तिलांजलि दे दी, अपने बंधुजनों से नाता तोड़ा, जिसका हृदय हिमकण के समान निष्कलंक है, पर्वत के समान विशाल, उसी से कपट करे! नहीं, वह इतनी नीचता नहीं कर सकती , अपने जीवन में उसने कितने ही युवकों से प्रेम का अभिनय किया था, कितने ही प्रेम के मतवालों को वह सब्ज बाग दिखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दुविधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका तिरस्कार न किया था। क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और था कि ऐसा अनुराग उसे और कहीं न मिला था।
क्या वह कुँवर साहब का जीवन सुखी बना सकती है? हॉँ, अवश्य। इस विषय में उसे लेशमात्र भी संदेह नहीं था। भक्ति के लिए ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो असाध्य हो; पर क्या वह प्रकृति को धोखा दे सकती है। ढलते हुए सूर्य में मध्याह्न का-सा प्रकाश हो सकता है? असम्भव। वह स्फूर्ति, वह चपलता, वह विनोद, वह सरल छवि, वह तल्लीनता, वह त्याग, वह आत्मविश्वास वह कहॉँ से लायेगी, जिसके सम्मिश्रण को यौवन कहते हैं? नहीं, वह कितना ही चाहे, पर कुंवर साहब के जीवन को सुखी नहीं बना सकतीं बूढ़ा बैल कभी जवान बछड़ों के साथ नहीं चल सकता।
आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों कृत्रिम साधनों से, बनावटी सिंगार से कुंवर को धोखें में डाला? अब इतना सब कुछ हो जाने पर वह किस मुँह से कहेगी कि मैं रंगी हुई गुड़िया हूँ, जबानी मुझसे कब की विदा हो चुकी, अब केवल उसका पद-चिह्न रह गया है।
रात के बारह बज गये थे। तारा मेज के सामने इन्हीं चिंताओं में मग्न बैठी हुई थी। मेज पर उपहारों के ढेर लगे हुए थे; पर वह किसी चीज की ओर ऑंख उठा कर भी न देखती थी। अभी चार दिन पहले वह इन्हीं चीजों पर प्राण देती थी, उसे हमेशा ऐसी चीजों की तलाश रहती थी, जो काल के चिह्नों को मिटा सकें, पर अब उन्हीं चीजों से उसे घृणा हो रही है। प्रेम सत्य है— और सत्य और मिथ्या, दोनों एक साथ नहीं रह सकते।
तारा ने सोचा—क्यों न यहॉँ से कहीं भाग जाय? किसी ऐसी जगह चली जाय, जहॉँ कोई उसे जानता भी न हो। कुछ दिनों के बाद जब कुंवर का विवाह हो जाय, तो वह फिर आकर उनसे मिले और यह सारा वृत्तांत उनसे कह सुनाए। इस समय कुंवर पर वज्रपात-सा होगा—हाय न-जाने उनकी दशा होगी; पर उसके लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है। अब उनके दिन रो-रोकर कटेंगे, लेकिन उसे कितना ही दु:ख क्यों न हो, वह अपने प्रियतम के साथ छल नहीं कर सकती। उसके लिए इस स्वर्गीय प्रेम की स्मृति, इसकी वेदना ही बहुत है। इससे अधिक उसका अधिकार नहीं।
दाई ने आकर कहा—बाई जी, चलिए कुछ थोड़ा-सा भोजन कर लीजिए अब तो बारह बज गए।
तारा ने कहा—नहीं, जरा भी भूख नहीं। तुम जाकर खा लो।
दाई—देखिए, मुझे भूल न जाइएगा। मैं भी आपके साथ चलूँगी।
तारा—अच्छे-अच्छे कपड़े बनवा रखे हैं न?
दाई—अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपड़े लेकर क्या करना है? आप अपना कोई उतारा दे दीजिएगा।
दाई चली गई। तारा ने घड़ी की ओर देखा। सचमुच बारह बज गए थे। केवल छह घंटे और हैं। प्रात:काल कुंवर साहब उसे विवाह-मंदिर में ले-जाने के लिए आ जायेंगे। हाय! भगवान, जिस पदार्थ से तुमने इतने दिनों तक उसे वंचित रखा, वह आज क्यों सामने लाये? यह भी तुम्हारी क्रीड़ा हैं
तारा ने एक सफद साड़ी पहन ली। सारे आभूषण उतार कर रख दिये। गर्म पानी मौजूद था। साबुन और पानी से मुँह धोया और आईने के सम्मुख जा कर खड़ी हो गयी—कहॉँ थी वह छवि, वह ज्योति, जो ऑंखों को लुभा लेती थी! रुप वही था, पर क्रांति कहॉँ? अब भी वह यौवन का स्वॉँग भर सकती है?
तारा को अब वहॉँ एक क्षण भी और रहना कठिन हो गया। मेज पर फैले हुए आभूषण और विलास की सामग्रियॉँ मानों उसे काटने लगी। यह कृत्रिम जीवन असह्य हो उठा, खस की टटिटयों और बिजली के पंखों से सजा हुआ शीतल भवन उसे भट्टी के समान तपाने लगा।
उसने सोचा—कहॉँ भाग कर जाऊँ। रेल से भागती हूँ, तो भागने ना पाऊँगी। सबेरे ही कुँवर साहब के आदमी छूटेंगे और चारों तरफ मेरी तलाश होने लगेगी। वह ऐसे रास्ते से जायगी, जिधर किसी का ख्याल भी न जाय।
तारा का हृदय इस समय गर्व से छलका पड़ता था। वह दु:खी न थी, निराश न थी। फिर कुंवर साहब से मिलेगी, किंतु वह निस्वार्थ संयोग होगा। प्रेम के बनाये हुए कर्त्तव्य मार्ग पर चल रही है, फिर दु:ख क्यों हो और निराश क्यों हो?
सहसा उसे ख्याल आया—ऐसा न हो, कुँवर साहब उसे वहॉँ न पा कर शेक-विह्वलता की दशा में अनर्थ कर बैठें। इस कल्पना से उसके रोंगटे खड़े हो गये। एक क्षण के के लिए उसका मन कातर हो उठा। फिर वह मेज पर जा बैठी, और यह पत्र लिखने लगी—
प्रियतम, मुझे क्षमा करना। मैं अपने को तुम्हारी दासी बनने के योग्य नहीं पाती। तुमने मुझे प्रेम का वह स्वरुप दिखा दिया, जिसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी। मेरे लिए इतना ही बहुत है। मैं जब जीऊँगी, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूँगी। मुझे ऐसा जान पड़ रहा है कि प्रेम की स्मृति में प्रेम के भोग से कही अधिक माधुर्य और आनन्द है। मैं फिर आऊँगी, फिर तुम्हारे दर्शन करुँगी; लेकिन उसी दशामें जब तुम विवाह कर लोगे। यही मेरे लौटने की शर्त है। मेरे प्राणें के प्राण, मुझसे नाराज न होना। ये आभूषण जो तुमने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नववधू के लिए छोड़े जाती हूँ। केवल वह मोतियों को हार, जो तुम्हारे प्रेम का पहला उपहार है, अपने साथ लिये जाती हूँ। तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, मेरी तलाश न करना। मैं तुम्हरी हूँ और सदा तुम्हारी रहूँगा.....।
तुम्हारी,
तारा
यह पत्र लिखकर तारा ने मेज पर रख दिया, मोतियों का हार गले में डाला और बाहर निकल आयी। थिएटर हाल से संगीत की ध्वनि आ रही थी। एक क्षण के लिए उसके पैर बँध गये। पन्द्रह वर्षो का पुराना सम्बन्ध आज टूट रहा था। सहसा उसने मैनेजर को आते देखा। उसका कलेजा धक से हो गया। वह बड़ी तेजी से लपककर दीवार की आड़ में खड़ी हो गयी। ज्यों ही मैनेजर निकल गया, वह हाते के बाहर आयी और कुछ दूर गलियों में चलने के बाद उसने गंगा का रास्ता पकड़ा।
गंगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-पॉँच साधु-बैरागी धूनियों के सामने लेटे थे। दस-पॉँच यात्री कम्बल जमीन पर बिछाये सो रहे थे। गंगा किसी विशाल सर्प की भॉँति रेंगती चली जाती थी। एक छोटी-सी नौका किनारे पर लगी हुई थी। मल्लाहा नौका में बैठा हुआ था।
तारा ने मल्लाहा को पुकारा—ओ मॉँझी, उस पार नाव ले चलेगा?
मॉँझी ने जवाब दिया—इतनी रात गये नाव न जाई।
मगर दूनी मजदूरी की बात सुनकर उसे डॉँड़ उठाया और नाव को खोलता हुआ बोला—सरकार, उस पार कहॉँ जैहैं?
‘उस पार एक गॉँव में जाना है।’
‘मुदा इतनी रात गये कौनों सवारी-सिकारी न मिली।’
‘कोई हर्ज नहीं, तुम मझे उस पर पहुँचा दो।’
मॉँझी ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका मंद गति से चलने लगी, मानों जीव स्वप्न-साम्राज्य में विचर रहा हो।
इसी समय एकादशी का चॉँद, पृथ्वी से उस पार, अपनी उज्जवल नौका खेता हुआ निकला और व्योम-सागर को पार करने लगा।
कायापलट
पहला दिन तो कमलाचरण ने किसी प्रकार छात्रालय में काटा। प्रात: से सायंकाल तक सोया किये। दूसरे दिन ध्यान आया कि आज नवाब साहब और तोखे मिर्जा के बटेरों में बढ़ाऊ जोड़ हैं। कैसे-कैसे मस्त पट्ठे हैं! आज उनकी पकड़ देखने के योग्य होगी। सारा नगर फट पड़े तो आश्चर्य नहीं। क्या दिल्लगी है कि नगर के लोग तो आनंद उड़ायें और मैं पड़ा रोऊं। यह सोचते-सोचते उठा और बात-की-बात में अखाड़े में था।
यहां आज बड़ी भीड़ थी। एक मेला-सा लगा हुआ था। भीश्ती छिड़काव कर रहे थे, सिगरेट, खोमचे वाले और तम्बोली सब अपनी-अपनी दुकान लगाये बैठे थे। नगर के मनचले युवक अपने हाथों में बटेर लिये या मखमली अड्डों पर बुलबुलों को बैठाये मटरगश्ती कर रहे थे कमलाचरण के मित्रों की यहां क्या कमी थी? लोग उन्हें खाली हाथ देखते तो पूछते – अरे राजा साहब! आज खाली हाथ कैसे? इतने में मियां, सैयद मजीद, हमीद आदि नशे में चूर, सिगरेट के धुऐं भकाभक उड़ाते दीख पड़े। कमलाचरण को देखते ही सब-के-सब सरपट दौड़े और उससे लिपट गये।
मजीद – अब तुम कहां गायब हो गये थे यार, कुरान की कसम मकान के सैंकड़ो चक्कर लगाये होंगे।
रामसेवक – आजकल आनंद की रातें हैं, भाई! आंखें नहीं देखते हो, नशा-सा चढ़ा हुआ है।
चन्दुलाल – चैन कर रहा है पट्ठा। जब से सुन्दरी घर में आयी, उसने बाजार की सूरत तक नहीं देखी। जब देखीये, घर में घुसा रहता है। खूब चैन कर ले यार!
कमला – चैन क्या खाक करुं? यहां तो कैद में फंस गया। तीन दिन से बोर्डिंग में पड़ा हुआ हूं।
मजीद - अरे! खुदा की कसम?
कमला – सच कहता हूं, परसों से मिट्टी पलीद हो रही है। आज सबकी आंख बचाकर निकल भागा।
रामसेवक – खूब उड़े। वह मुछंदर सुपरिण्टेण्डण्ट झल्ला रहा होगा।
कमला – यह मार्के का जोड़ छोड़कर किताबों में सिर कौन मारता।
सैयद – यार, आज उड़ आये तो क्या? सच तो यह है कि तुम्हारा वहां रहना आफत है। रोज तो न आ सकोगे? और यहां आये दिन नयी सैर, नयी-नयी बहारें, कल लाला डिग्गी पर, परसों प्रेट पर, नरसों बेड़ों का मेला-कहां तक गिनाऊं, तुम्हारा जाना बुरा हुआ।
कमला – कल की कटाव तो मैं जरुर देखूंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।
सैयद – और बेड़ों का मेला न देखा तो कुछ न देखा।
तीसरे पहर कमलाचरण मित्रों से बिदा होकर उदास मन छात्रालय की ओर चला। मन में एक चोर-सा बैठा हुआ था। द्वार पर पहुंचकर झांकने लगाकि सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब न हों तो लतपककर कमरे में हो रहूं। तो यह देखता है कि वह भी बाहर ही की ओर आ रहे हैं। चित्त को भली-भांति दृढ़ करके भीतर पैठा।
सुरिण्टेण्डेण्ट साहब ने पूछा – अब तक हां थे?
‘एक काम से बाजार गया था’।
‘यह बाजार जाने का समय नहीं है’।
‘मुझे ज्ञात नहीं था, अब ध्यान रखूंग को जब कमला चारपाई पर लेटा तो सोचने लगा – यार, आज तो बच गया, पर उत्तम तभी हो कि कल बचूं। और परसों भी महाशय की आंख में धूल डालूं। कल का दृश्य वस्तुत:दर्शनीय होगा। पतंग आकाश में बातें करेंगे और लम्बे-लम्बे पेंच होंगे। यह ध्यान करते-करते सो गया। दूसरे दिन प्रात: काल छात्रालय से निकल भागा। सुहृदगण लाल डिग्गी पर उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। देखते ही गदगद् हो गये और पीठ ठोंकी।
कमलाचरण कुछ देर तक तो कटाव देखता रहा। फिर शौक चर्राया कि क्यों न मैं भी अपने कनकौए मंगाऊं और अपने हाथों की सफाई दिखलाऊं। सैयद ने भड़काया, बद-बदकर लड़ाओ। रुपये हम देंगे।चट घर पर आदमी दौड़ा दिया। पूरा विश्वास था कि अपने मांझे से सबको परास्त कर दूंगा। परन्तु जब आदमी घर से खाली हाथ आया, तब तो उसकी देह में आग-सी-लग गयी। हण्टर लेकर दौड़ा और घर पहुंचते ही कहारों को एक ओर से सटर-सटर पीटना आरंभ किया। बेचारे बैठे हुक्का: तमाखू कर रहे थे। निरपराध अचानक हण्टर पड़े तो चिल्ला-चिल्लाकर रोने लेगे। सारे मुहल्ले में एक कोलाहल मच गया। किसी को समझ ही में न आया कि हमारा क्या दोष है? वहां कहारों का भली-भांति सत्कार करके कमलाचरण अपने कमरे में पहुंचा। परन्तु वहां की दुर्दशा देखकर क्रोध और भी प्रज्ज्वलित हो गया। पतंग फटे हुए थे, चर्खियां टूटी हुई थीं, मांझे लच्छियां उलझ् पड़ीं थीं, मानो किसी आपति ने इन यवन योद्वाओं का सत्यानाश कर दिया था। समझ गया कि अवश्य यह माताजी की करतूत है। क्रोध से लाल माता के पास गया और उच्च स्वर से बोला – क्या मां! तुम सचमुच मेरे प्राण ही लेने पर आ गयी हो? तीन दिन हुए कारागार में भिजवाया पर इतने पर भी चित्त को संतोष न हुआ। मेरे विनोद की सामग्रियों को नष्ट कर डाला क्यों?
प्रेमवती – (विस्मय से) मैंने तुम्हारी कोई चीज़ नहीं छुई! क्या हुआ?
कमला – (बिगड़कर) झूठों के मुख में कीड़े पड़ते हैं। तुमने मेरी वस्तुएं नहीं छुई तो किसको साहस है जो मेरे कमरे में जाकर मेरे कनकौए और चर्खियां सब तोड़-फोड़ डाले, क्या इतना भी नहीं देखा जाता।
प्रेमवती – ईश्वर साक्षी है। मैंने तुम्हारे कमरे में पांव भी नहीं रखा। चलो, देखूं कौन-कौन चीज़ें टूटी हैं। यह कहकर प्रेमवती तो इस कमरे की ओर चली और कमला क्रोध से भरा आंगन में खड़ा रहा कि इतने में माधवी विरजन के कमरे से निकली और उसके हाथ में एक चिट्टी देकर चली गयी। लिखा हुआ था-
‘अपराध मैंने किया है। अपराधिन मैं हूं। जो दण्ड चाहे दीजिए’।
यह पत्र देखते ही कमला भीगी बिल्ली बन गया और दबे पांव बैठक की ओर चला। प्रेमवती पर्दे की आड़ से सिसकते हुए नौकरों को डांट रही थी, कमलाचरण ने उसे मना किया और उसी क्षण कुछ और कनकौए जो बचे हुए थे, स्वंय फाड़ डाले, चर्खियां टुकड़े-टुकड़े कर डालीं और डोर में दियासलाई लगा दी। माता के ध्यान ही में नहीं आता था कि क्या बात है? कहां तो अभी-अभी इन्हीं वस्तुओं के लिए संसार सिर पर उठा लिया था, और कहा आप ही उसका शत्रु हो गया। समझी, शायद क्रोध से ऐसा कर रहा हों मानाने लगीं, पर कमला की आकृति से क्रोध तनिक भी प्रकट न होता था। सिथरता से बोला – क्रोध में नहीं हूं। आज से दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूं कि पतंग कभी न
उड़ाऊँगां मेरी मूर्खता थी, इन वस्तुओं के लिए आपसे झगड़ बैठा।
जब कमलाचरण कमरे में अकेला रह गया तो सोचने लगा-निस्सन्देह मेरा पतंग उड़ाना उन्हे नापसन्द है, इससे हार्दिक घृणा है; नहीं तो मुझ पर यह अत्याचार कदापि न करतीं। यदि एक बार उनसे भेंट हो जाती तो पूछता कि तुम्हारी क्या इच्छा है; पर कैसे मुँह दिखाऊँ। एक तो महामूर्श, तिस पर कई बार अपनी मूर्खता का परिचय दे चुका। सेंधवाली घटना की सूचना उन्हें अवश्य मिली होगी। उन्हें मुख दिखाने के योग्य नहीं रहा। अब तो यही उपाय है कि न तो उनका मुख देखूँ न अपना दिखाऊँ, या किसी प्रकार कुछ विद्या सीखूँ। हाय ! इस सुन्दरी ने कैसार स्वरुप पाया है! स्त्री नीह अप्सरा जान पड़ती है। क्या अभी वह दिन भी होगा जब कि वह मुझसे प्रेम करेगी? क्या लाल-लाल रसीले अधर है! पर है कठोर हृदय। दया तो उसे छू नही गयी। कहती है जो दण्ड दूँ? यदि पा जाऊँ हृदय से लगा लू। अच्छा, तो अब आज से पढ़ना चाहिये। यह सोचते-सोचते उठा और दरबा खोलकर कबूतरों का उड़ाने लगा। सैकड़ो जोड़े थे ओर एक-से-एक बढ़-चढ़कर। आकाश मे तारे बन जाएँ, ड़े तो दिन-भर उतरने का नाम न लें। जगर क बूतरबाज एक-एक जोड़ पर गुलामी करने को तैयार थे। परन्तु क्षण-मात्र में सब-के-सब उड़ा दिय। जब दरबा खाली हो ेगया, तो कहाररों को आज्ञा दी कि इसे उठा ले जाओ और आग में जला दो। छत्ता भी गिरा दो, नहीं तो सब कबूतर जाकर उसकी पर बैठेंगें। कबूतरों का काम समाप्त करके बटेरों और बुलबुलों की ओर चले और उनकी भी कारागार से मुक्त कर दिया।
बाहर तो यह चरित्र हो रहा था, भीतर प्रेमवती छाती पीट रही थी कि ल़का न जाने क्या करने तर तत्पर हुआ है? विरजन को बुलाकर कहा-बेटी? बच्चे को किसी प्रकार रोको। न-जाने उसने मन मे क्या ठानी है? यह कहक रोने लगी! विरजन को भी सन्देह हो रहा था कि अवश्य इनकी कुछ और नयीत है नहीं तो यह क्रोध क्यों? यद्यपि कमला दुर्व्यसनी था, दुराचारी था, कुचरित्र था, परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी उसमें एक बड़ा गुण भी था, जिसका कोई स्त्री अवहेलना नहीं कर सकती। उसे वृजरानी से स्ववी प्रीति थी। और इसका गुप् रीति से कई बार परिचय भी मिल गया था। यही कारण था जिसेन विरजन को इतना गर्वशील बना दिया था। उसने कागेज निकाला और यह पत्र बाहर भेजा।
“प्रियत,
यह कोप किस पर है? केवल इसीलिए कि मैंने दो-तीन कनकौए फाड़ृ डाले? यदि मुझे ज्ञात होता कि आप इतनी-सी बात पर ऐसे क्रुद्व हो जायेंगे, तो कदापि उन पर हाथ न लगाती। पर अब तो अपराध हो गया, क्षमा कीजिये। यह पहला कसूर है
आपकी
वृजरानी।”
कमलाचरण यह पत्र पाकर ऐसा प्रमुदित हुआ, माने सारे जगत की संपत्ति प्राप्त हो गयी। उत्तर देने की इच्छा हुई, पर लेखनी ही नहीं उठती थी। न प्रशस्ति मिलती है, न प्रतिष्ठा, न आरंभ का विचार आता, न समाप्ति का। बहुत चाहते हैं कि भावपूर्ण लहलहाता हुआ पत्र लिखूं, पर बुद्वि तनिक भी नहीं दौड़ती। आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मुर्खता और निरक्षरता पर रोना आया। शोक ! मैं एक सीधा-सा पत्र भी नहीं लिख सकता। इस विचार से वह रोने लगा और घर के द्वार सब बन्द कर लिये कि कोई देख न ले।
तीसरे पहर जब मुंशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे पहली वस्तु जो उनकी दृष्टि में पड़ी, वह आग का अलावा था। विस्मित होकर नौकरों से पूडा-यह अलाव कैसा?
नौकरों ने उत्तर दिया-सरकार ! दरबा जल रहा है।
मुंशीजी- (घुड़ककर) इसे क्यों जलाते हो? अब कबूर कहाँ रहेंगे?
कहार-छोटे बाबू की आज्ञा है कि सब दरबे जला दो
मुंशीजी- कबूतर कहाँ गये?
कहार-सब उड़ा दिये, एक भी नहीं रखा। कनकौए सब फाड़ डाले, डोर जला दी, बड़ा नुकसान किया।
कहरों ने अपनी समझ में मार-पीट का बउला लिया। बेचारे समझे कि मुंशीजी इस नुकासन क लिये कमलाचरण को बुरा-भला कहेंगे, परन्तु मंशीजी ने यह समाचार सुना तो भैंचक्के-से रह गये। उन्ही जानवरों पर कमलाचरण प्राण देता था, आज अकस्मात् क्या कायापलट हो गयी? अवश्य कुछ भेद है। कहार से कहा- बच्चे को भेज दो।
एक मिनट में कहार ने आकर कहा- हजुर, दरवाजा भीतर से बन्द है। बहुत खटखटाया, बोलते ही नहीं।
इतना सुनना था कि मुंशीजी का रुधिर शुष्क हो गया। झट सन्देह हुआ कि बच्चे ने विष खा लिया। आज एक जहर खिलाने के मुकदमें का फैसला किया था। नंगे, पाँव दौड़े और बन्द कमरे के किवाड़ पर बजपूर्वक लात मारी और कहा- बच्चा! बच्चा! यह कहते-कहते गला रुँध गया। कमलाचरण पिता की वाणी पहिचान कर झट उठा और अपने आँसूं पोंछकर किवाड़ खोल दिया। परन्तु उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब मुंशीजी ने धिक्कार, फटकार के बदले उसे हृदय से लगा लिया और व्याकुल होकर पूछा-बच्चा, तुम्हे मेरे सिर की कसम, बता दो तुमने कुछ खा तो नहीं लिया? कमलाचरण ने इस प्रश्न का अर्थ समझने के लिये मुंशीजी की ओर आँखें उठायी तो उनमें जल भरा था, मुंशीजी को पूरा विश्वास हो गया कि अवश्यश् विपत्ति का सामना हुआ। एक कहार से कहा-डाक्टर साहब को बुला ला। कहना, अभी चलिये।
अब जाकर दुर्बुद्वि कमेलाचरण ने पिता की इस घबराहट का अर्थ समझा। दौड़कर उनसे लिपट गया और बोला- आपको भ्रम हुआ है। आपके सिर की कसम, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।
परन्तु डिप्टी साहब की बुद्वि स्थिर न थी ; समझे, यह मुझे रोककर विलम्ब करना चाहता है। विनीत भाव से बोले-बच्चा? ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो, मैं सन्दूक से एक औषधि ले आऊँ। मैं क्या जानता था कि तुम इस नीयत से छात्रालय में जा रहे हो।
कमलाचरण- इर्श्वर-साक्षी से कहता हूँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ। मैं ऐसा लज्जावान होता, तो इतना मूर्ख क्यों बना रहता? आप व्यर्थ ही डाक्टर साहब को बुला रहे हैं।
मुंशीजी- (कुछ-कुछ विश्वास करके) तो किवाड़ बन्द कर क्या करते थे?
कमलाचरण- भीतर से एक पत्र आया था, उत्तर लिख रहा था।
मुंशीजी- और यह कबूतर वगैरह क्यों उड़ा दिये?
कमला- इसीलिए कि निश्चिंतापूर्वक पढूँ। इन्हीं बखेड़ों में समय नष्ट होता था। आज मैनें इनका अन्त कर दिया। अबा आप देखेंगे कि मैं पढ़ने में कैसा जी लगाता हूँ।
अब जाके डिप्टी साहब की बुद्वि ठिकाने आयी। भीतर जाकर प्रेमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उन्होंने जब सुना कि विरजन ने क्रोध में आकर कमला के कनकौए फाड़ डाले और चर्ख्रिया तोड़ डाली तो हंस पड़े और कमलाचरण के विनोद के सर्वनाश का भेद समझ में आ गया। बोले-जान पड़ता है कि बहू इन लालजी को सीधा करके छोड़ेगी।
यहां आज बड़ी भीड़ थी। एक मेला-सा लगा हुआ था। भीश्ती छिड़काव कर रहे थे, सिगरेट, खोमचे वाले और तम्बोली सब अपनी-अपनी दुकान लगाये बैठे थे। नगर के मनचले युवक अपने हाथों में बटेर लिये या मखमली अड्डों पर बुलबुलों को बैठाये मटरगश्ती कर रहे थे कमलाचरण के मित्रों की यहां क्या कमी थी? लोग उन्हें खाली हाथ देखते तो पूछते – अरे राजा साहब! आज खाली हाथ कैसे? इतने में मियां, सैयद मजीद, हमीद आदि नशे में चूर, सिगरेट के धुऐं भकाभक उड़ाते दीख पड़े। कमलाचरण को देखते ही सब-के-सब सरपट दौड़े और उससे लिपट गये।
मजीद – अब तुम कहां गायब हो गये थे यार, कुरान की कसम मकान के सैंकड़ो चक्कर लगाये होंगे।
रामसेवक – आजकल आनंद की रातें हैं, भाई! आंखें नहीं देखते हो, नशा-सा चढ़ा हुआ है।
चन्दुलाल – चैन कर रहा है पट्ठा। जब से सुन्दरी घर में आयी, उसने बाजार की सूरत तक नहीं देखी। जब देखीये, घर में घुसा रहता है। खूब चैन कर ले यार!
कमला – चैन क्या खाक करुं? यहां तो कैद में फंस गया। तीन दिन से बोर्डिंग में पड़ा हुआ हूं।
मजीद - अरे! खुदा की कसम?
कमला – सच कहता हूं, परसों से मिट्टी पलीद हो रही है। आज सबकी आंख बचाकर निकल भागा।
रामसेवक – खूब उड़े। वह मुछंदर सुपरिण्टेण्डण्ट झल्ला रहा होगा।
कमला – यह मार्के का जोड़ छोड़कर किताबों में सिर कौन मारता।
सैयद – यार, आज उड़ आये तो क्या? सच तो यह है कि तुम्हारा वहां रहना आफत है। रोज तो न आ सकोगे? और यहां आये दिन नयी सैर, नयी-नयी बहारें, कल लाला डिग्गी पर, परसों प्रेट पर, नरसों बेड़ों का मेला-कहां तक गिनाऊं, तुम्हारा जाना बुरा हुआ।
कमला – कल की कटाव तो मैं जरुर देखूंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।
सैयद – और बेड़ों का मेला न देखा तो कुछ न देखा।
तीसरे पहर कमलाचरण मित्रों से बिदा होकर उदास मन छात्रालय की ओर चला। मन में एक चोर-सा बैठा हुआ था। द्वार पर पहुंचकर झांकने लगाकि सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब न हों तो लतपककर कमरे में हो रहूं। तो यह देखता है कि वह भी बाहर ही की ओर आ रहे हैं। चित्त को भली-भांति दृढ़ करके भीतर पैठा।
सुरिण्टेण्डेण्ट साहब ने पूछा – अब तक हां थे?
‘एक काम से बाजार गया था’।
‘यह बाजार जाने का समय नहीं है’।
‘मुझे ज्ञात नहीं था, अब ध्यान रखूंग को जब कमला चारपाई पर लेटा तो सोचने लगा – यार, आज तो बच गया, पर उत्तम तभी हो कि कल बचूं। और परसों भी महाशय की आंख में धूल डालूं। कल का दृश्य वस्तुत:दर्शनीय होगा। पतंग आकाश में बातें करेंगे और लम्बे-लम्बे पेंच होंगे। यह ध्यान करते-करते सो गया। दूसरे दिन प्रात: काल छात्रालय से निकल भागा। सुहृदगण लाल डिग्गी पर उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। देखते ही गदगद् हो गये और पीठ ठोंकी।
कमलाचरण कुछ देर तक तो कटाव देखता रहा। फिर शौक चर्राया कि क्यों न मैं भी अपने कनकौए मंगाऊं और अपने हाथों की सफाई दिखलाऊं। सैयद ने भड़काया, बद-बदकर लड़ाओ। रुपये हम देंगे।चट घर पर आदमी दौड़ा दिया। पूरा विश्वास था कि अपने मांझे से सबको परास्त कर दूंगा। परन्तु जब आदमी घर से खाली हाथ आया, तब तो उसकी देह में आग-सी-लग गयी। हण्टर लेकर दौड़ा और घर पहुंचते ही कहारों को एक ओर से सटर-सटर पीटना आरंभ किया। बेचारे बैठे हुक्का: तमाखू कर रहे थे। निरपराध अचानक हण्टर पड़े तो चिल्ला-चिल्लाकर रोने लेगे। सारे मुहल्ले में एक कोलाहल मच गया। किसी को समझ ही में न आया कि हमारा क्या दोष है? वहां कहारों का भली-भांति सत्कार करके कमलाचरण अपने कमरे में पहुंचा। परन्तु वहां की दुर्दशा देखकर क्रोध और भी प्रज्ज्वलित हो गया। पतंग फटे हुए थे, चर्खियां टूटी हुई थीं, मांझे लच्छियां उलझ् पड़ीं थीं, मानो किसी आपति ने इन यवन योद्वाओं का सत्यानाश कर दिया था। समझ गया कि अवश्य यह माताजी की करतूत है। क्रोध से लाल माता के पास गया और उच्च स्वर से बोला – क्या मां! तुम सचमुच मेरे प्राण ही लेने पर आ गयी हो? तीन दिन हुए कारागार में भिजवाया पर इतने पर भी चित्त को संतोष न हुआ। मेरे विनोद की सामग्रियों को नष्ट कर डाला क्यों?
प्रेमवती – (विस्मय से) मैंने तुम्हारी कोई चीज़ नहीं छुई! क्या हुआ?
कमला – (बिगड़कर) झूठों के मुख में कीड़े पड़ते हैं। तुमने मेरी वस्तुएं नहीं छुई तो किसको साहस है जो मेरे कमरे में जाकर मेरे कनकौए और चर्खियां सब तोड़-फोड़ डाले, क्या इतना भी नहीं देखा जाता।
प्रेमवती – ईश्वर साक्षी है। मैंने तुम्हारे कमरे में पांव भी नहीं रखा। चलो, देखूं कौन-कौन चीज़ें टूटी हैं। यह कहकर प्रेमवती तो इस कमरे की ओर चली और कमला क्रोध से भरा आंगन में खड़ा रहा कि इतने में माधवी विरजन के कमरे से निकली और उसके हाथ में एक चिट्टी देकर चली गयी। लिखा हुआ था-
‘अपराध मैंने किया है। अपराधिन मैं हूं। जो दण्ड चाहे दीजिए’।
यह पत्र देखते ही कमला भीगी बिल्ली बन गया और दबे पांव बैठक की ओर चला। प्रेमवती पर्दे की आड़ से सिसकते हुए नौकरों को डांट रही थी, कमलाचरण ने उसे मना किया और उसी क्षण कुछ और कनकौए जो बचे हुए थे, स्वंय फाड़ डाले, चर्खियां टुकड़े-टुकड़े कर डालीं और डोर में दियासलाई लगा दी। माता के ध्यान ही में नहीं आता था कि क्या बात है? कहां तो अभी-अभी इन्हीं वस्तुओं के लिए संसार सिर पर उठा लिया था, और कहा आप ही उसका शत्रु हो गया। समझी, शायद क्रोध से ऐसा कर रहा हों मानाने लगीं, पर कमला की आकृति से क्रोध तनिक भी प्रकट न होता था। सिथरता से बोला – क्रोध में नहीं हूं। आज से दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूं कि पतंग कभी न
उड़ाऊँगां मेरी मूर्खता थी, इन वस्तुओं के लिए आपसे झगड़ बैठा।
जब कमलाचरण कमरे में अकेला रह गया तो सोचने लगा-निस्सन्देह मेरा पतंग उड़ाना उन्हे नापसन्द है, इससे हार्दिक घृणा है; नहीं तो मुझ पर यह अत्याचार कदापि न करतीं। यदि एक बार उनसे भेंट हो जाती तो पूछता कि तुम्हारी क्या इच्छा है; पर कैसे मुँह दिखाऊँ। एक तो महामूर्श, तिस पर कई बार अपनी मूर्खता का परिचय दे चुका। सेंधवाली घटना की सूचना उन्हें अवश्य मिली होगी। उन्हें मुख दिखाने के योग्य नहीं रहा। अब तो यही उपाय है कि न तो उनका मुख देखूँ न अपना दिखाऊँ, या किसी प्रकार कुछ विद्या सीखूँ। हाय ! इस सुन्दरी ने कैसार स्वरुप पाया है! स्त्री नीह अप्सरा जान पड़ती है। क्या अभी वह दिन भी होगा जब कि वह मुझसे प्रेम करेगी? क्या लाल-लाल रसीले अधर है! पर है कठोर हृदय। दया तो उसे छू नही गयी। कहती है जो दण्ड दूँ? यदि पा जाऊँ हृदय से लगा लू। अच्छा, तो अब आज से पढ़ना चाहिये। यह सोचते-सोचते उठा और दरबा खोलकर कबूतरों का उड़ाने लगा। सैकड़ो जोड़े थे ओर एक-से-एक बढ़-चढ़कर। आकाश मे तारे बन जाएँ, ड़े तो दिन-भर उतरने का नाम न लें। जगर क बूतरबाज एक-एक जोड़ पर गुलामी करने को तैयार थे। परन्तु क्षण-मात्र में सब-के-सब उड़ा दिय। जब दरबा खाली हो ेगया, तो कहाररों को आज्ञा दी कि इसे उठा ले जाओ और आग में जला दो। छत्ता भी गिरा दो, नहीं तो सब कबूतर जाकर उसकी पर बैठेंगें। कबूतरों का काम समाप्त करके बटेरों और बुलबुलों की ओर चले और उनकी भी कारागार से मुक्त कर दिया।
बाहर तो यह चरित्र हो रहा था, भीतर प्रेमवती छाती पीट रही थी कि ल़का न जाने क्या करने तर तत्पर हुआ है? विरजन को बुलाकर कहा-बेटी? बच्चे को किसी प्रकार रोको। न-जाने उसने मन मे क्या ठानी है? यह कहक रोने लगी! विरजन को भी सन्देह हो रहा था कि अवश्य इनकी कुछ और नयीत है नहीं तो यह क्रोध क्यों? यद्यपि कमला दुर्व्यसनी था, दुराचारी था, कुचरित्र था, परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी उसमें एक बड़ा गुण भी था, जिसका कोई स्त्री अवहेलना नहीं कर सकती। उसे वृजरानी से स्ववी प्रीति थी। और इसका गुप् रीति से कई बार परिचय भी मिल गया था। यही कारण था जिसेन विरजन को इतना गर्वशील बना दिया था। उसने कागेज निकाला और यह पत्र बाहर भेजा।
“प्रियत,
यह कोप किस पर है? केवल इसीलिए कि मैंने दो-तीन कनकौए फाड़ृ डाले? यदि मुझे ज्ञात होता कि आप इतनी-सी बात पर ऐसे क्रुद्व हो जायेंगे, तो कदापि उन पर हाथ न लगाती। पर अब तो अपराध हो गया, क्षमा कीजिये। यह पहला कसूर है
आपकी
वृजरानी।”
कमलाचरण यह पत्र पाकर ऐसा प्रमुदित हुआ, माने सारे जगत की संपत्ति प्राप्त हो गयी। उत्तर देने की इच्छा हुई, पर लेखनी ही नहीं उठती थी। न प्रशस्ति मिलती है, न प्रतिष्ठा, न आरंभ का विचार आता, न समाप्ति का। बहुत चाहते हैं कि भावपूर्ण लहलहाता हुआ पत्र लिखूं, पर बुद्वि तनिक भी नहीं दौड़ती। आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मुर्खता और निरक्षरता पर रोना आया। शोक ! मैं एक सीधा-सा पत्र भी नहीं लिख सकता। इस विचार से वह रोने लगा और घर के द्वार सब बन्द कर लिये कि कोई देख न ले।
तीसरे पहर जब मुंशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे पहली वस्तु जो उनकी दृष्टि में पड़ी, वह आग का अलावा था। विस्मित होकर नौकरों से पूडा-यह अलाव कैसा?
नौकरों ने उत्तर दिया-सरकार ! दरबा जल रहा है।
मुंशीजी- (घुड़ककर) इसे क्यों जलाते हो? अब कबूर कहाँ रहेंगे?
कहार-छोटे बाबू की आज्ञा है कि सब दरबे जला दो
मुंशीजी- कबूतर कहाँ गये?
कहार-सब उड़ा दिये, एक भी नहीं रखा। कनकौए सब फाड़ डाले, डोर जला दी, बड़ा नुकसान किया।
कहरों ने अपनी समझ में मार-पीट का बउला लिया। बेचारे समझे कि मुंशीजी इस नुकासन क लिये कमलाचरण को बुरा-भला कहेंगे, परन्तु मंशीजी ने यह समाचार सुना तो भैंचक्के-से रह गये। उन्ही जानवरों पर कमलाचरण प्राण देता था, आज अकस्मात् क्या कायापलट हो गयी? अवश्य कुछ भेद है। कहार से कहा- बच्चे को भेज दो।
एक मिनट में कहार ने आकर कहा- हजुर, दरवाजा भीतर से बन्द है। बहुत खटखटाया, बोलते ही नहीं।
इतना सुनना था कि मुंशीजी का रुधिर शुष्क हो गया। झट सन्देह हुआ कि बच्चे ने विष खा लिया। आज एक जहर खिलाने के मुकदमें का फैसला किया था। नंगे, पाँव दौड़े और बन्द कमरे के किवाड़ पर बजपूर्वक लात मारी और कहा- बच्चा! बच्चा! यह कहते-कहते गला रुँध गया। कमलाचरण पिता की वाणी पहिचान कर झट उठा और अपने आँसूं पोंछकर किवाड़ खोल दिया। परन्तु उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब मुंशीजी ने धिक्कार, फटकार के बदले उसे हृदय से लगा लिया और व्याकुल होकर पूछा-बच्चा, तुम्हे मेरे सिर की कसम, बता दो तुमने कुछ खा तो नहीं लिया? कमलाचरण ने इस प्रश्न का अर्थ समझने के लिये मुंशीजी की ओर आँखें उठायी तो उनमें जल भरा था, मुंशीजी को पूरा विश्वास हो गया कि अवश्यश् विपत्ति का सामना हुआ। एक कहार से कहा-डाक्टर साहब को बुला ला। कहना, अभी चलिये।
अब जाकर दुर्बुद्वि कमेलाचरण ने पिता की इस घबराहट का अर्थ समझा। दौड़कर उनसे लिपट गया और बोला- आपको भ्रम हुआ है। आपके सिर की कसम, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।
परन्तु डिप्टी साहब की बुद्वि स्थिर न थी ; समझे, यह मुझे रोककर विलम्ब करना चाहता है। विनीत भाव से बोले-बच्चा? ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो, मैं सन्दूक से एक औषधि ले आऊँ। मैं क्या जानता था कि तुम इस नीयत से छात्रालय में जा रहे हो।
कमलाचरण- इर्श्वर-साक्षी से कहता हूँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ। मैं ऐसा लज्जावान होता, तो इतना मूर्ख क्यों बना रहता? आप व्यर्थ ही डाक्टर साहब को बुला रहे हैं।
मुंशीजी- (कुछ-कुछ विश्वास करके) तो किवाड़ बन्द कर क्या करते थे?
कमलाचरण- भीतर से एक पत्र आया था, उत्तर लिख रहा था।
मुंशीजी- और यह कबूतर वगैरह क्यों उड़ा दिये?
कमला- इसीलिए कि निश्चिंतापूर्वक पढूँ। इन्हीं बखेड़ों में समय नष्ट होता था। आज मैनें इनका अन्त कर दिया। अबा आप देखेंगे कि मैं पढ़ने में कैसा जी लगाता हूँ।
अब जाके डिप्टी साहब की बुद्वि ठिकाने आयी। भीतर जाकर प्रेमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उन्होंने जब सुना कि विरजन ने क्रोध में आकर कमला के कनकौए फाड़ डाले और चर्ख्रिया तोड़ डाली तो हंस पड़े और कमलाचरण के विनोद के सर्वनाश का भेद समझ में आ गया। बोले-जान पड़ता है कि बहू इन लालजी को सीधा करके छोड़ेगी।
क्रिकेट मैच
आज क्रिकेट मैच में मुझे जितनी निराशा हुई मैं उसे व्यक्त नहीं कर हार सकता। हमारी टीम दुश्मनों से कहीं ज्यादा मजबूत था मगर हमें हार हुई और वे लोग जीत का डंका बजाते हुए ट्राफी उड़ा ले गये। क्यों? सिर्फ इसलिए कि हमारे यहां नेतृत्व के लिए योग्यता शर्त नही। हम नेतृत्व के लिए धन-दौलत जरुरी समझते हैं। हिज हाइनेस कप्तान चुने गये, क्रिकेट बोर्ड का फैसला सबको मानना पड़ा। मगर कितने दिलों में आग लगी, कितने लोगों ने हुक्मे हाकिम समझकर इस फैसले को मंजूर किया, जोश कहां, संकल्प कहां, खून की आखिरी बूंद गिरा देने काउत्साह कहां। हम खेले और जाहिरा दिल लगाकर खेले। मगर यह सच्चाई के लिए जान देनेवालों की फौज न थी। खेल में किसी का दिल न था।
मैं स्टेशन पर खड़ा अपना तीसरे दर्जे का टिकट लेने की फिक्र में था कि एक युवती ने जो अभी कार से उतरी थी आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया और बोली-आप भी तो इसी गाड़ी से चल रहे हैं मिस्टर जफर?
मुझे हैरत हुई कि यह कौन लड़की है और इसे मेरा नाम क्योंकर मालूम हो गया? मुझे एक पल के लिए सकता-सा हो गया कि जैसे शिष्टाचार और अच्छे आचरण की सब बातें दिमाग से गायब हो गई हों। सौन्दर्य में एक ऐसी शान होती है जो बड़ों-बड़ों का सिर झुका देती है। मुझे अपनी तुच्छता की ऐसी अनुभूति कभी न हुई थी। मैंने निजाम हैदराबाद से, हिज एक्सेलेन्सी वायसराय से, महाराज मैसूर से हाथ मिलाया, उनके साथ बैठकर खाना खाया मगर यह कमजोरी मुझ पर कभी न छाई थी। बस, यहां जी चाहता था कि अपनी पलकों से उसके पांव चूम लूं। यह वह सलोनापन ना था जिस पर हम जान देते हैं, न वह नजाकत जिसकी कवि लोग कसमें खाते हैं। उस जगह बुद्धि की कांति थी, गंभीरता थी, गरिमा थी, उमंग थी और थी आत्म-अभिव्यक्ति की निस्संकोच लालसा। मैंने सवाल-भरे अंदाज से कहा-जी हां।
यह कैसे पूछूं कि मेरी आपसे भेंट कब हुई। उसकी बेतकल्लुफी कह रही थी वह मुझसे परिचित है। मैं बेगाना कैसे बनूं। इसी सिलसिले में मैंने अपने मर्द होने क फर्ज अदा कर दिया-मेरे लिए कोई खिदमत?
उसने मुस्कराकर कहा-जी हां, आपसे बहुत-से काम लूंगी। चलिए, अंदर वेटिंग रुम में बैठें। लखनऊ जा रहे होंगे?मै। भी वहीं चल रही हूं।
वेटिंग रुम आकर उसने मुझे आराम कुर्सी पर बिठाया और खुद एक मामूली कुर्सी पर बैठकर सिगरेट केस मेरी तरफ बढ़ाती हुई बोली-आज तो आपकी बौलिंग बड़ी भयानक थी, वर्ना हम लोग पूरी इनिंग से हारते।
मेरा ताज्जुब और बढ़ा। इस सुन्दरी को क्या क्रिकेट से भी शौक है! मुझे उसके सामने आरामकुर्सी पर बैठते झिझक होरही थी। ऐसी बदतमीजी मैंने कभी न की थी। ध्यान उसी तरफ लगा था, तबियत में कुछ घुटन-सी हो रही थी। रगों में वह तेजी और तबियत में वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर स्वभावत: मुझ पर छा जाना चाहिए था। मैंने पूछा-क्या आप वहीं तशरीफ रखती थीं।
उसने अपना सिगरेट जलाते हुए कहा-जी हां, शुरु से आखिर तक। मुझे तो सिर्फ आपका खेल जंचा। और लोग तो कुछ बेदिल-से हो रहे थे और मैं उसके राज समझ रही हूं। हमारे यहां लोगों में सही आदमियों को सही जगह पर रखने का माद्दा ही नहीं है। जैसे इस राजनीतिक पस्ती ने हमारे सभी गुणों को कुचल डाला हो। जिसके पास धन है उसे हर चीज का अधिकार है। वह किसी ज्ञान, विज्ञान के, साहित्यिक-सामाजिक जलसे का सभापति हो सकता है, इसकी योग्यता उसमें हो या न हो। नई इमारतों का उद्घाटन उसके हाथों कराया जाता है, बुनियादें उसके हाथ रखवाई जाती हैं, सांस्कृतिक आंदोलनों का नेतृत्व उसे दिया जाता है, वह कान्वोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़कों को इनाम बांटेगा, यह सब हमारी दास-मनोवृत्ति का प्रसाद है। कोई ताज्जुब नहीं कि हम इतने नीच और गिरे हुए हैं। जहां हुक्म और अख्तियार का मामला है वहां तो खैर मजबूरी है, हमें लोगों के पैर चूमने ही पड़ते हैं मगर जहां हम अपने स्वतंत्र विचार और स्वतंन्त्र आचरण से काम लें सकते हैं वहां भी हमारी जी हुजूरी की आदत हमारा गला नहीं छोड़ती। इस टीम का कप्तान आपको होना चाहिए था, तब देखती दुश्मन क्यों बाजी ले जाता। महाराजा साहब में इस टीम का कप्तान बनने की इतनी ही योग्यता है जितनी आप में असेम्बली का सभापति बनने की या मुझमें सिनेमा ऐक्टिंग की।
बिल्कुल वही भाव जो मेरे दिल में थे मगर उसकी जबान से निकलर कितने असरदार और कितने आंख खोलनेवाले हो गए। मैंने कहा-आप ठीक कहती हैं। सचमुच यह हमारी कमजोरी है।
-आपको इस टीम में शरीक न होना चाहिए था।
-मैं मजबूर था।
इस सुन्दरी का नाम मिस हेलेन मुकर्जी है। अभी इंगलैण्ड से आ रही है। यही क्रिकेट मैच देखने के लिए बम्बई उतर गई थी। इंगलैंड में उसने डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त की है और जनता की सेवा उसके जीवन का लक्ष्य हैं। वहां उसने एक अखबार में मेरी तस्वीर देखी थी और मेरा जिक्र भी पढ़ा था तब से वह मेरे लिए अच्छा ख्याल रखती है। यहां मुझे खेलते देखकर वह और भी प्रभावित हुई। उसका इरादा हैकि हिन्दुस्तान की एक नई टीम तैयार की जाए और उसमें वही लोग लिए जाएं जो राष्ट्र का प्रतिनिधत्व करने के अधिकारी हैं। उसका प्रस्ताव है कि मैं इस टीम का कप्तान बनाया जाऊं। इसी इरादे से वह सारे हिन्दुस्तान का दौरा करना चाहती है। उसके स्वर्गीय पिता डा. एन. मुकर्जी ने बहुत काफी सम्पत्ति छोड़ी है और वह उसकी सम्पूर्ण उत्तराधिकारिणी है। उसके प्रस्ताव सुनकर मेरा सर आसमान में उड़ने लगा। मेरी जिन्दगी का सुनहरा सपनाइतने अप्रत्याशित ढंग से वास्तविकता का रुप ले सकेगा, यह कौन सोच सकता था। अलौकिक शक्ति में मेरा विश्वास नहीं मगर आज मेरे शरीर का रोआ-रोआ कृतज्ञता और भक्ति भावना से भरा हुआ था। मैंने उचित और विन्रम शब्दों में मिस हेलेन को धन्यवाद दिया।
गाड़ी की घण्टी हुई। मिस मुकर्जी ने फर्स्ट क्लास के दो टिकट मंगवाए। मैं विरोध न कर सका। उसने मेरा लगेज उठवाया, मेराहैट खुद उठा लिया और बेधड़क एक कमरे में जा बैठी और मुझे भी अंदर बुला लिया। उसका खानसामा तीसरे दर्जे में बैठा। मेरी क्रिया-शक्ति जैसे खो गई थी। मैं भगवान् जाने क्यों इन सब मामलों में उसे अगुवाई करने देता था जो पुरुष होने के नाते मेरे अधिकार की चीज थी। शायद उसके रुप, उसक बौद्धिक गरिमा, उसकी उदारता ने मुझ पर रोब डाल दिया था कि जैसे उसने कामरुप की जादूगरनियों की तरह मुझे भेड़ बना लिया हो और मेरी अपनी इच्छा शक्ति लुप्त हो गई हो। इतनी ही देर में मेरा अस्तित्व उसकी इच्छा में खो गया था। मेरे स्वाभिमान की यह मांग थी कि मैं उसे अपने लिए फर्स्ट क्लास का टिकट न मंगवाने देता और तीसरे ही दर्जे में आराम से बैठता और अगर पहले दर्जे में बैठना था तो इतनी ही उदारता से दोनों के लिए खुद पहले दर्जे का टिकट लाता, लेकिन अभी तो मेरी क्रियाशक्ति लुप्त हो गई थी।
२ जनवरी-मैं हैरान हूं हेलेन को मुझसे इतनी हमदर्दी क्यों है और यह सिर्फ दोस्तना हमदर्दी नहीं है। इसमें मुहब्बत की सच्चाई है। दया में तो इतना आतिथ्य-सत्कार नहीं हुआ करता, और रही मेरे गुणो की स्वीकृति तो मैं अक्ल से इतना खाली नहीं हूं कि इस धोखे में पडूं। गुणों की स्वीकृति ज्यादा से ज्यादा एक सिगरेट और एक प्याली चाय पा सकती है। यह सेवा-सत्कार तो मैं वहीं पाता हूं जहां किसी मैच में खेलने के लिए मुझे बुलाया जाता है। तो भी वहां भी इतने हार्दिक ढंग से मेरा सत्कार नहीं होा, सिर्फ रस्मी खातिरदारी बरती जाती है। उसने जैसे मेरी सुविधा और मेरे आराम के लिए अपने को समर्पित कर दिया हो। मैं तो शायद अपनी प्रेमिका के सिवा और किसी के साथ इस हार्दिकता का बर्ताव न कर सकता। याद रहे, मैने प्रेमिका कहा है पत्नी नहीं कहा। पत्नी की हम खातिरदारी नहीं करते, उससे तो खातिरदारी करवाना ही हमारा स्वभाव हो गया है और शायद सच्चाई भी यही है। मगर फिलहाल तो मैं इन दोनों नेमतों में से एक का भी हाल नहीं जानता। उसके नाश्ते, डिनर, लंच में तो मैं श्रीक था ही, हर स्टेशन पर (वह डाक थी था और खास-खास स्टेशनों पर ही रुकती थीं) मेवे और फल मंगवाती और मुझे आग्रहपूर्वक खिलाती। कहां की क्या चीज मशहूर है, इसका उसे खूब पता है। मेरे दोस्तों और घरवालों के लिए तरह-तरह के तोहफे खरीदे मगर हैरत यह है कि मैंने एक बार भी उसे मना न किया। मना क्योंकर करता, मुझसे पूछकर तो लाती नहीं। जब वह एक चीज लाकर मुहब्बत के साथ मुझे भेंट करती है तो मैं कैसे इन्कार करुं! खुदा जाने क्यों मैं मर्द होकर भी उसके सामने औरत की तरह शर्मीला, कम बोलनेवाला हो जाता हूं कि जैसे मेरे मुंह में जबान ही नहीं। दिन की थकान की वजह से रात-भर मुझे बेचैनी रही सर में हल्का-सा दर्द था मगर मैंने इस दर्द को बढ़ाकर कहा। अकेला होता तो शायद इस दर्द की जरा भी पर वाह न करता मगर आज उसकी मौजूदगी में मुझे उस दर्द को जाहिर करने में मजा आ रहा था। वह मेरे सर में तेल की मालिश करने लगी और मैं खामखाह निढाल हुआ जाता था। मेरी बेचैनी के साथ उसकी परेशानी बढ़ती जाती थी। मुझसे बार-बार पूछती, अब दर्द कैसा है और मैं अनमने ढंग से कहता-अच्छा हूं। उसकी नाजुक हथेलियों के स्पर्श से मेरे प्राणों में गुदगुदी होती थी। उसका वह आकर्षक चेहरा मेरे सर पर झुका है, उसकी गर्म सांसे मेरे माथे को चूम रही है और मैं गोया जन्नत के मजे ले रहा हूं। मेरे दिल में अब उस पर फतेह पाने की ख्वाहिश झकोले ले रही है। मैं चाहता हूं वह मेरे नाज उठाये। मेरी तरफ से कोई ऐसी पहलन न होनी चाहिए जिससे वह समझ जाये कि मैं उस पर लट्टू हो गया हूं। चौबीस घंटे के अन्दर मेरी मन:स्थिति में कैसे यह क्रांति हो जाती है, मैं क्योंकर प्रेम के प्रार्थी से प्रेम का पात्र बन जाता हूं। वह बदस्तूर उसी तल्लीनता से मेरे सिर पर हाथ रक्खे बैठी हुई है। तब मुझे उस पर रहम आ जाता है और मैं भी उस एहसास से बरी नहीं हूं मगर इसमाशूकी में आज जो लुत्फ आया उस पर आशिकी निछावर है। मुहब्बत करना गुलामी है, मुहब्बत किया जाना बादशाहत।
मैंने दया दिखलाते हुए कहा-आपको मेरी वजह से बड़ी तकलीफ हुई।
उसने उमगकर कहा-मुझे क्या तकलीफ हुई। आप दर्द से बेचैन थे और मैं बैठी थी। काश, यह दर्द मुझे हो जाता!
मैं सातवें आसमान पर उड़ जा रहा था।
५ जनवरी-कल शाम को हम लखनऊ पहुंच गये। रास्ते में हेलेन से सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक प्रश्नों पर खूब बातें हुईं। ग्रेजुएट तो भगवान की दया से मैं भी हूं और तब से फुर्सत् के वक्त किताबें भी देखता ही रहा हूं, विद्वानों की संगत में भी बैठा हूं लेकन उसके ज्ञान के विस्तार के आगे कदम-कदम पर मुझे अपनी हीनता का बोध होता है। हर एक प्रश्न पर उसकी अपनी राय है और मालूम होता है कि उसने छानबीन के बाद वह राय कामय की है। उसके विपरीत मैं उन लोगों मैं हूं जो हवा के साथ उड़ते हैं, जिनके क्षणिक प्रेरणाएं उलट-पुलटकर रख देती हैं। मैं कोशिश करता था कि किसी तरह उस पर अपनी अक्ल का सिक्का जमा दूं मगर उसके दृष्टिकोण मुझे बेजबान कर देते थे। जब मैंने देखा कि ज्ञान-विज्ञान की बातों में मैं उससे न जीत सकूंगा तो मैंने एबीसीनिया और इटली की लड़ाई काजिक्र छेड़ दिया जिस पर मैंने अपनीसमझ में बहुत कुछ पढ़ा था और इंगलैण्ड और फ्रांस ने इटली पर दबाव डाला है उसकी तारीफ में मैंने अपनी वाक्-शक्ति खर्च कर दी। उसने एक मुस्कराहट के साथ कहा-आपका यह ख्याल है कि इंगलैण्ड और फ्रांस सिर्फ इंसानियत और कमजोर की मदद करने की भावना से प्रभावित हो रहे हैं तो आपकी गलती है। उनकी साम्राज्य-लिप्सा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती कि दुनिया की कोई दूसरी ताकत फले-फूले। मुसोलिनी वही कर रहा है जो इंगलैण्ड ने कितनी ही बार किया है आज भी कर रहा है। यह सारा बहुरुपियापन सिर्फ एबीसीनिया में व्यावसायिक सुविधाएं प्राप्त करने के लिए है। इंगलैण्ड को अपने व्यापार के लिए बाजारों की जरुरत है, अपनी बढ़ी हुई आबादी के लिए जमीन के टुकड़ों की जरुरत है, अपने शिक्षितों के लिए ऊंचे पदों की जरुरत है तो इटली को क्यों न हो। इटली जो कुछ कर रहा है ईमानदारी के साथ एलानिया कर रहा है। उसने कभी दुनिया के सब लोगों के साथ भाईचारे का डंका नहीं पीटा, कभी शान्ति का राग नहीं अलापा। वह तो साफ कहता है कि संघर्ष ही जीवन का लक्षण है। मनुष्य की उन्नति लड़ाई ही के जरिये होती है। आदमी के अच्छे गुण लड़ाई के मैदान में ही खुलते हैं। सबकी बराबरी के दृष्टिकोण को वह पागलपन रहता है। वह अपना शुमार भी उन्हें बड़ी कौमों में करता है जिन्हें रंगीन आबादियां पर हुकूमत करने का हक है। इसलिए हम उसकी कार्य-प्रणाली को समझ सकते हैं। इंगलैण्ड ने हमेशा धोखेबाजी से काम लिया है। हमेशा एक राष्ट्र के विभिन्न तत्वों में भेद डालकर या उनके आपसी विरोधों को राजनीति के आधार बनाकर उन्हें अपना पिछलग्गू बनाया है। मैं तो चाहती हूं कि दुनिया में इटली, जापान और जर्मनी खूब तरक्की करें और इंगलैण्ड को आधिपत्य टूटे। तभी दुनिया में असली जनतंत्र और शांति पैदा होगी। वर्तमान सभ्यता जब तक मिट न जायेगी, दुनिया में शांति का राज्य न होगा। कमजोर कौमों को जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, उसी तरह जिस तरह कमजोर पौधों को। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अस्तित्व स्वयं उनके लिएकष्ट का कारण है बल्कि इसलिए कि वही दुनिया के इस झगड़े और रक्तपात के लिए जिम्मेदार हैं।
मैं भला क्यों इस बात से सहमत होने लगा। मैंने जवाब तो दिया और इन विचारों को इतने ही जोरदार शब्दों में खंडन भी किया। मगर मैंने देखा कि इस मामले में वह संतुलित बुद्धि से काम नहीं लेना चाहती या नहीं ले सकती।
स्टेशन पर उतरते ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि हेलेन का अपना मेहमान कैसे बनाऊं। अगर होटल में ठहराऊं तो भगवान् जाने अपने दिल में क्या कहे। अगर अपने घर ले जाऊं तो शर्म मालूम होती हैं। वहां ऐसी रुचि-सम्पन्न और अमीरों जैसे स्वभाव वाली युवती के लिए सुविधा की क्या सामग्रिया हैं। यह संयोग की बात है कि मैं क्रिकेट अच्छा खेलने लगा और पढ़ना-लिखना, छोड़-छोड़कर उसी का हो रहा और एक स्कूल का मास्टर हूं मगर घर की हालत बदस्तूर है। वही पुरा, अंधेरा, टूटा-फूटा मकान, तंग गली में, वही पुराने रग-ढंग, वही पुरा ढच्चर। अम्मा तो शायद हेलेन को घर में कदम ही न रखने दें। और यहां तक नौबत ही क्यों आने लगी, हेलेन खुद दरवाजे ही से भागेगी। काश, आज अपना मकान होता, सजा-संवरा, मैं इस काबिल होता कि हेलेन की मेहमानदारी कर सकता, इससे ज्यादा खुशनसीबी और क्या हो सकती थी लेकिन बेसरोसामनी का बुरा हो!
मैं यही सोच रहा था कि हेलेन ने कुली से असबाब उठावाया और बाहर आकर एक टैक्सी बुला ली। मेरे लिए इस टैक्सी में बैठ जाने के सिवा दूसरा चारा क्या बाकी रह गया थ। मुझे यकीन है, अगर मै। उसे अपने घर ले जाता तो उस बेसरोसामनी के बावजूद वह खुश होती। हेलेन रुचि-सम्पन्न है मगर नखरेबाज नहीं है। वह हर तरह की आजमाइश और तजुर्बे के लिएतैयार रहती है। हेलेन शायद आजमाइशों को और नागवार तजुर्बों को बुलाती है। मगर मुझ में न यह कल्पना है न वह साहस।
उसने जरा गौर से मेरा चेहरा देखा होता तो उसे मालूम हो जाता कि उस पर कितनी शार्मिन्दगी और कितनी बेचारगी झलक रही थी। मगर शिष्टाचार का निबाह तो जरुरी था, मैंने आपत्ति की, मैं तो आपको अपना मेहमान बनाना चाहता थ मगरआप उल्टा मुझे होटल लिए जा रही हैं।
उसने शरारत से कहा-इसीलिए कि आप मेरे काबू से बाहर न हो जाएं। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होती कि आपके आतिथ्य सत्कार का आनन्द उठाऊं लेकिन प्रेम ईर्ष्यालु होता है, यह आपको मालूम है। वहां आपके इष्ट मित्र आपके वक्त का बड़ा हिस्सा लेंगे,आपको मुझसे बात करने का वक्त ही न मिलेगा और मर्द आम तौर पर कितने बेमुरब्बत ओर जल्द भूल जाने वाले होते हैं इसका मुझे अनुभव हो चुका है। मैं तुम्हें एक क्षण के लिए भी अलग नहीं छोड़ सकती। मुझे अपने सामने देखकर तुम मुझे भूलना भी चाहो तो नहीं भूल सकते।
मुझे अपनी इस खुशनसीबी पर हैरत ही नहीं, बल्कि ऐसा लगने लगा कि जैसे सपना देख रहा हूं। जिस सुन्दरी की एक नजर पर मैं अपने को कुर्बान कर देता वह इस तरह मुझसे मुहब्बत काइजहार करे। मेरा तो जी चाहता था कि इसी बात पर उनके कदमों को पकड़ कर सीने से लगा लूं और आसुंओं से तर कर दूं।
होटल में पहुंचे। मेरा कमरा अलग था। खाना हमने साथ खाया और थोड़ी देर तक वहीं हरी-हरी घास पर टहलते रहे। खिलाड़ियों को कैसे चुना जाय, यही सवाल था। मेरा जी तो यही चाहता था कि सारी रात उसके साथ टहलता रहूं लेकिन उसने कहा-आप अब आराम करें, सुबह बहुत काम है। मैं अपने कमरे में जाकर लेट रहा मगर सारी रात नींद नहीं आई। हेलेन का मन अभी तक मेरी आंखों से छिपा हुआ था, हर क्षण वह मेरे लिए पहेली होती जा रही है।
१२ जनवरी-आज दिन-भर लखनऊ के क्रिकेटरों का जमाव रहा। हेलेन दीपक थी और पतिंगे उसके गिर्द मंडरा रहे थे। यहां से मेरे अलावा दो लोगों का खेल हेलेन को बहुत पसन्द आया-बृजेन्द्र और सादिक। हेलेन उन्हें आल इंडिया टीम में रखना चाहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों इस फन के उस्ताद हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह शुरुआत की है उससे तो यही मालूम होता है कि वह क्रिकेट खेलने नहीं अपनी किस्मत की बाजी खेलने आये हैं। हेलने किस मिजाज की औरत है, यह समझना मुश्किल है। बृजेन्द्र मुझसे ज्यादा सुन्दर है, यह मैं भी स्वीकार करता हूं, रहन-सहन से पूरा साहब है। लेकिन पक्का शोहदा, लोफर। मैं नहीं चाहता कि हेलेन उससे किसी तरह का सम्बन्ध रक्खे। अदब तो उसे छू नहीं गया। बदजबान परले सिरे का, बेहूदा गन्दे मजाक, बातचीत का ढंग नहीं और मौके-महल की समझ नहीं। कभी-कभी हेलेन से ऐसे मतलब-भरे इशारे करजाता है कि मैं शर्म से सिर झुका लेता हूं लेकिन हेलेन को शायद उसका बाजारुपन, उसका छिछोरापन महसूस नहीं होता। नहीं, वह शायद उसके गन्दे इशारों कामजा लेती है। मैंने कभी उसके माथे पर शिकन नहीं देखी। यह मैं नहीं कहता कि वह हंसमुखपन
मैं स्टेशन पर खड़ा अपना तीसरे दर्जे का टिकट लेने की फिक्र में था कि एक युवती ने जो अभी कार से उतरी थी आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया और बोली-आप भी तो इसी गाड़ी से चल रहे हैं मिस्टर जफर?
मुझे हैरत हुई कि यह कौन लड़की है और इसे मेरा नाम क्योंकर मालूम हो गया? मुझे एक पल के लिए सकता-सा हो गया कि जैसे शिष्टाचार और अच्छे आचरण की सब बातें दिमाग से गायब हो गई हों। सौन्दर्य में एक ऐसी शान होती है जो बड़ों-बड़ों का सिर झुका देती है। मुझे अपनी तुच्छता की ऐसी अनुभूति कभी न हुई थी। मैंने निजाम हैदराबाद से, हिज एक्सेलेन्सी वायसराय से, महाराज मैसूर से हाथ मिलाया, उनके साथ बैठकर खाना खाया मगर यह कमजोरी मुझ पर कभी न छाई थी। बस, यहां जी चाहता था कि अपनी पलकों से उसके पांव चूम लूं। यह वह सलोनापन ना था जिस पर हम जान देते हैं, न वह नजाकत जिसकी कवि लोग कसमें खाते हैं। उस जगह बुद्धि की कांति थी, गंभीरता थी, गरिमा थी, उमंग थी और थी आत्म-अभिव्यक्ति की निस्संकोच लालसा। मैंने सवाल-भरे अंदाज से कहा-जी हां।
यह कैसे पूछूं कि मेरी आपसे भेंट कब हुई। उसकी बेतकल्लुफी कह रही थी वह मुझसे परिचित है। मैं बेगाना कैसे बनूं। इसी सिलसिले में मैंने अपने मर्द होने क फर्ज अदा कर दिया-मेरे लिए कोई खिदमत?
उसने मुस्कराकर कहा-जी हां, आपसे बहुत-से काम लूंगी। चलिए, अंदर वेटिंग रुम में बैठें। लखनऊ जा रहे होंगे?मै। भी वहीं चल रही हूं।
वेटिंग रुम आकर उसने मुझे आराम कुर्सी पर बिठाया और खुद एक मामूली कुर्सी पर बैठकर सिगरेट केस मेरी तरफ बढ़ाती हुई बोली-आज तो आपकी बौलिंग बड़ी भयानक थी, वर्ना हम लोग पूरी इनिंग से हारते।
मेरा ताज्जुब और बढ़ा। इस सुन्दरी को क्या क्रिकेट से भी शौक है! मुझे उसके सामने आरामकुर्सी पर बैठते झिझक होरही थी। ऐसी बदतमीजी मैंने कभी न की थी। ध्यान उसी तरफ लगा था, तबियत में कुछ घुटन-सी हो रही थी। रगों में वह तेजी और तबियत में वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर स्वभावत: मुझ पर छा जाना चाहिए था। मैंने पूछा-क्या आप वहीं तशरीफ रखती थीं।
उसने अपना सिगरेट जलाते हुए कहा-जी हां, शुरु से आखिर तक। मुझे तो सिर्फ आपका खेल जंचा। और लोग तो कुछ बेदिल-से हो रहे थे और मैं उसके राज समझ रही हूं। हमारे यहां लोगों में सही आदमियों को सही जगह पर रखने का माद्दा ही नहीं है। जैसे इस राजनीतिक पस्ती ने हमारे सभी गुणों को कुचल डाला हो। जिसके पास धन है उसे हर चीज का अधिकार है। वह किसी ज्ञान, विज्ञान के, साहित्यिक-सामाजिक जलसे का सभापति हो सकता है, इसकी योग्यता उसमें हो या न हो। नई इमारतों का उद्घाटन उसके हाथों कराया जाता है, बुनियादें उसके हाथ रखवाई जाती हैं, सांस्कृतिक आंदोलनों का नेतृत्व उसे दिया जाता है, वह कान्वोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़कों को इनाम बांटेगा, यह सब हमारी दास-मनोवृत्ति का प्रसाद है। कोई ताज्जुब नहीं कि हम इतने नीच और गिरे हुए हैं। जहां हुक्म और अख्तियार का मामला है वहां तो खैर मजबूरी है, हमें लोगों के पैर चूमने ही पड़ते हैं मगर जहां हम अपने स्वतंत्र विचार और स्वतंन्त्र आचरण से काम लें सकते हैं वहां भी हमारी जी हुजूरी की आदत हमारा गला नहीं छोड़ती। इस टीम का कप्तान आपको होना चाहिए था, तब देखती दुश्मन क्यों बाजी ले जाता। महाराजा साहब में इस टीम का कप्तान बनने की इतनी ही योग्यता है जितनी आप में असेम्बली का सभापति बनने की या मुझमें सिनेमा ऐक्टिंग की।
बिल्कुल वही भाव जो मेरे दिल में थे मगर उसकी जबान से निकलर कितने असरदार और कितने आंख खोलनेवाले हो गए। मैंने कहा-आप ठीक कहती हैं। सचमुच यह हमारी कमजोरी है।
-आपको इस टीम में शरीक न होना चाहिए था।
-मैं मजबूर था।
इस सुन्दरी का नाम मिस हेलेन मुकर्जी है। अभी इंगलैण्ड से आ रही है। यही क्रिकेट मैच देखने के लिए बम्बई उतर गई थी। इंगलैंड में उसने डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त की है और जनता की सेवा उसके जीवन का लक्ष्य हैं। वहां उसने एक अखबार में मेरी तस्वीर देखी थी और मेरा जिक्र भी पढ़ा था तब से वह मेरे लिए अच्छा ख्याल रखती है। यहां मुझे खेलते देखकर वह और भी प्रभावित हुई। उसका इरादा हैकि हिन्दुस्तान की एक नई टीम तैयार की जाए और उसमें वही लोग लिए जाएं जो राष्ट्र का प्रतिनिधत्व करने के अधिकारी हैं। उसका प्रस्ताव है कि मैं इस टीम का कप्तान बनाया जाऊं। इसी इरादे से वह सारे हिन्दुस्तान का दौरा करना चाहती है। उसके स्वर्गीय पिता डा. एन. मुकर्जी ने बहुत काफी सम्पत्ति छोड़ी है और वह उसकी सम्पूर्ण उत्तराधिकारिणी है। उसके प्रस्ताव सुनकर मेरा सर आसमान में उड़ने लगा। मेरी जिन्दगी का सुनहरा सपनाइतने अप्रत्याशित ढंग से वास्तविकता का रुप ले सकेगा, यह कौन सोच सकता था। अलौकिक शक्ति में मेरा विश्वास नहीं मगर आज मेरे शरीर का रोआ-रोआ कृतज्ञता और भक्ति भावना से भरा हुआ था। मैंने उचित और विन्रम शब्दों में मिस हेलेन को धन्यवाद दिया।
गाड़ी की घण्टी हुई। मिस मुकर्जी ने फर्स्ट क्लास के दो टिकट मंगवाए। मैं विरोध न कर सका। उसने मेरा लगेज उठवाया, मेराहैट खुद उठा लिया और बेधड़क एक कमरे में जा बैठी और मुझे भी अंदर बुला लिया। उसका खानसामा तीसरे दर्जे में बैठा। मेरी क्रिया-शक्ति जैसे खो गई थी। मैं भगवान् जाने क्यों इन सब मामलों में उसे अगुवाई करने देता था जो पुरुष होने के नाते मेरे अधिकार की चीज थी। शायद उसके रुप, उसक बौद्धिक गरिमा, उसकी उदारता ने मुझ पर रोब डाल दिया था कि जैसे उसने कामरुप की जादूगरनियों की तरह मुझे भेड़ बना लिया हो और मेरी अपनी इच्छा शक्ति लुप्त हो गई हो। इतनी ही देर में मेरा अस्तित्व उसकी इच्छा में खो गया था। मेरे स्वाभिमान की यह मांग थी कि मैं उसे अपने लिए फर्स्ट क्लास का टिकट न मंगवाने देता और तीसरे ही दर्जे में आराम से बैठता और अगर पहले दर्जे में बैठना था तो इतनी ही उदारता से दोनों के लिए खुद पहले दर्जे का टिकट लाता, लेकिन अभी तो मेरी क्रियाशक्ति लुप्त हो गई थी।
२ जनवरी-मैं हैरान हूं हेलेन को मुझसे इतनी हमदर्दी क्यों है और यह सिर्फ दोस्तना हमदर्दी नहीं है। इसमें मुहब्बत की सच्चाई है। दया में तो इतना आतिथ्य-सत्कार नहीं हुआ करता, और रही मेरे गुणो की स्वीकृति तो मैं अक्ल से इतना खाली नहीं हूं कि इस धोखे में पडूं। गुणों की स्वीकृति ज्यादा से ज्यादा एक सिगरेट और एक प्याली चाय पा सकती है। यह सेवा-सत्कार तो मैं वहीं पाता हूं जहां किसी मैच में खेलने के लिए मुझे बुलाया जाता है। तो भी वहां भी इतने हार्दिक ढंग से मेरा सत्कार नहीं होा, सिर्फ रस्मी खातिरदारी बरती जाती है। उसने जैसे मेरी सुविधा और मेरे आराम के लिए अपने को समर्पित कर दिया हो। मैं तो शायद अपनी प्रेमिका के सिवा और किसी के साथ इस हार्दिकता का बर्ताव न कर सकता। याद रहे, मैने प्रेमिका कहा है पत्नी नहीं कहा। पत्नी की हम खातिरदारी नहीं करते, उससे तो खातिरदारी करवाना ही हमारा स्वभाव हो गया है और शायद सच्चाई भी यही है। मगर फिलहाल तो मैं इन दोनों नेमतों में से एक का भी हाल नहीं जानता। उसके नाश्ते, डिनर, लंच में तो मैं श्रीक था ही, हर स्टेशन पर (वह डाक थी था और खास-खास स्टेशनों पर ही रुकती थीं) मेवे और फल मंगवाती और मुझे आग्रहपूर्वक खिलाती। कहां की क्या चीज मशहूर है, इसका उसे खूब पता है। मेरे दोस्तों और घरवालों के लिए तरह-तरह के तोहफे खरीदे मगर हैरत यह है कि मैंने एक बार भी उसे मना न किया। मना क्योंकर करता, मुझसे पूछकर तो लाती नहीं। जब वह एक चीज लाकर मुहब्बत के साथ मुझे भेंट करती है तो मैं कैसे इन्कार करुं! खुदा जाने क्यों मैं मर्द होकर भी उसके सामने औरत की तरह शर्मीला, कम बोलनेवाला हो जाता हूं कि जैसे मेरे मुंह में जबान ही नहीं। दिन की थकान की वजह से रात-भर मुझे बेचैनी रही सर में हल्का-सा दर्द था मगर मैंने इस दर्द को बढ़ाकर कहा। अकेला होता तो शायद इस दर्द की जरा भी पर वाह न करता मगर आज उसकी मौजूदगी में मुझे उस दर्द को जाहिर करने में मजा आ रहा था। वह मेरे सर में तेल की मालिश करने लगी और मैं खामखाह निढाल हुआ जाता था। मेरी बेचैनी के साथ उसकी परेशानी बढ़ती जाती थी। मुझसे बार-बार पूछती, अब दर्द कैसा है और मैं अनमने ढंग से कहता-अच्छा हूं। उसकी नाजुक हथेलियों के स्पर्श से मेरे प्राणों में गुदगुदी होती थी। उसका वह आकर्षक चेहरा मेरे सर पर झुका है, उसकी गर्म सांसे मेरे माथे को चूम रही है और मैं गोया जन्नत के मजे ले रहा हूं। मेरे दिल में अब उस पर फतेह पाने की ख्वाहिश झकोले ले रही है। मैं चाहता हूं वह मेरे नाज उठाये। मेरी तरफ से कोई ऐसी पहलन न होनी चाहिए जिससे वह समझ जाये कि मैं उस पर लट्टू हो गया हूं। चौबीस घंटे के अन्दर मेरी मन:स्थिति में कैसे यह क्रांति हो जाती है, मैं क्योंकर प्रेम के प्रार्थी से प्रेम का पात्र बन जाता हूं। वह बदस्तूर उसी तल्लीनता से मेरे सिर पर हाथ रक्खे बैठी हुई है। तब मुझे उस पर रहम आ जाता है और मैं भी उस एहसास से बरी नहीं हूं मगर इसमाशूकी में आज जो लुत्फ आया उस पर आशिकी निछावर है। मुहब्बत करना गुलामी है, मुहब्बत किया जाना बादशाहत।
मैंने दया दिखलाते हुए कहा-आपको मेरी वजह से बड़ी तकलीफ हुई।
उसने उमगकर कहा-मुझे क्या तकलीफ हुई। आप दर्द से बेचैन थे और मैं बैठी थी। काश, यह दर्द मुझे हो जाता!
मैं सातवें आसमान पर उड़ जा रहा था।
५ जनवरी-कल शाम को हम लखनऊ पहुंच गये। रास्ते में हेलेन से सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक प्रश्नों पर खूब बातें हुईं। ग्रेजुएट तो भगवान की दया से मैं भी हूं और तब से फुर्सत् के वक्त किताबें भी देखता ही रहा हूं, विद्वानों की संगत में भी बैठा हूं लेकन उसके ज्ञान के विस्तार के आगे कदम-कदम पर मुझे अपनी हीनता का बोध होता है। हर एक प्रश्न पर उसकी अपनी राय है और मालूम होता है कि उसने छानबीन के बाद वह राय कामय की है। उसके विपरीत मैं उन लोगों मैं हूं जो हवा के साथ उड़ते हैं, जिनके क्षणिक प्रेरणाएं उलट-पुलटकर रख देती हैं। मैं कोशिश करता था कि किसी तरह उस पर अपनी अक्ल का सिक्का जमा दूं मगर उसके दृष्टिकोण मुझे बेजबान कर देते थे। जब मैंने देखा कि ज्ञान-विज्ञान की बातों में मैं उससे न जीत सकूंगा तो मैंने एबीसीनिया और इटली की लड़ाई काजिक्र छेड़ दिया जिस पर मैंने अपनीसमझ में बहुत कुछ पढ़ा था और इंगलैण्ड और फ्रांस ने इटली पर दबाव डाला है उसकी तारीफ में मैंने अपनी वाक्-शक्ति खर्च कर दी। उसने एक मुस्कराहट के साथ कहा-आपका यह ख्याल है कि इंगलैण्ड और फ्रांस सिर्फ इंसानियत और कमजोर की मदद करने की भावना से प्रभावित हो रहे हैं तो आपकी गलती है। उनकी साम्राज्य-लिप्सा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती कि दुनिया की कोई दूसरी ताकत फले-फूले। मुसोलिनी वही कर रहा है जो इंगलैण्ड ने कितनी ही बार किया है आज भी कर रहा है। यह सारा बहुरुपियापन सिर्फ एबीसीनिया में व्यावसायिक सुविधाएं प्राप्त करने के लिए है। इंगलैण्ड को अपने व्यापार के लिए बाजारों की जरुरत है, अपनी बढ़ी हुई आबादी के लिए जमीन के टुकड़ों की जरुरत है, अपने शिक्षितों के लिए ऊंचे पदों की जरुरत है तो इटली को क्यों न हो। इटली जो कुछ कर रहा है ईमानदारी के साथ एलानिया कर रहा है। उसने कभी दुनिया के सब लोगों के साथ भाईचारे का डंका नहीं पीटा, कभी शान्ति का राग नहीं अलापा। वह तो साफ कहता है कि संघर्ष ही जीवन का लक्षण है। मनुष्य की उन्नति लड़ाई ही के जरिये होती है। आदमी के अच्छे गुण लड़ाई के मैदान में ही खुलते हैं। सबकी बराबरी के दृष्टिकोण को वह पागलपन रहता है। वह अपना शुमार भी उन्हें बड़ी कौमों में करता है जिन्हें रंगीन आबादियां पर हुकूमत करने का हक है। इसलिए हम उसकी कार्य-प्रणाली को समझ सकते हैं। इंगलैण्ड ने हमेशा धोखेबाजी से काम लिया है। हमेशा एक राष्ट्र के विभिन्न तत्वों में भेद डालकर या उनके आपसी विरोधों को राजनीति के आधार बनाकर उन्हें अपना पिछलग्गू बनाया है। मैं तो चाहती हूं कि दुनिया में इटली, जापान और जर्मनी खूब तरक्की करें और इंगलैण्ड को आधिपत्य टूटे। तभी दुनिया में असली जनतंत्र और शांति पैदा होगी। वर्तमान सभ्यता जब तक मिट न जायेगी, दुनिया में शांति का राज्य न होगा। कमजोर कौमों को जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, उसी तरह जिस तरह कमजोर पौधों को। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अस्तित्व स्वयं उनके लिएकष्ट का कारण है बल्कि इसलिए कि वही दुनिया के इस झगड़े और रक्तपात के लिए जिम्मेदार हैं।
मैं भला क्यों इस बात से सहमत होने लगा। मैंने जवाब तो दिया और इन विचारों को इतने ही जोरदार शब्दों में खंडन भी किया। मगर मैंने देखा कि इस मामले में वह संतुलित बुद्धि से काम नहीं लेना चाहती या नहीं ले सकती।
स्टेशन पर उतरते ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि हेलेन का अपना मेहमान कैसे बनाऊं। अगर होटल में ठहराऊं तो भगवान् जाने अपने दिल में क्या कहे। अगर अपने घर ले जाऊं तो शर्म मालूम होती हैं। वहां ऐसी रुचि-सम्पन्न और अमीरों जैसे स्वभाव वाली युवती के लिए सुविधा की क्या सामग्रिया हैं। यह संयोग की बात है कि मैं क्रिकेट अच्छा खेलने लगा और पढ़ना-लिखना, छोड़-छोड़कर उसी का हो रहा और एक स्कूल का मास्टर हूं मगर घर की हालत बदस्तूर है। वही पुरा, अंधेरा, टूटा-फूटा मकान, तंग गली में, वही पुराने रग-ढंग, वही पुरा ढच्चर। अम्मा तो शायद हेलेन को घर में कदम ही न रखने दें। और यहां तक नौबत ही क्यों आने लगी, हेलेन खुद दरवाजे ही से भागेगी। काश, आज अपना मकान होता, सजा-संवरा, मैं इस काबिल होता कि हेलेन की मेहमानदारी कर सकता, इससे ज्यादा खुशनसीबी और क्या हो सकती थी लेकिन बेसरोसामनी का बुरा हो!
मैं यही सोच रहा था कि हेलेन ने कुली से असबाब उठावाया और बाहर आकर एक टैक्सी बुला ली। मेरे लिए इस टैक्सी में बैठ जाने के सिवा दूसरा चारा क्या बाकी रह गया थ। मुझे यकीन है, अगर मै। उसे अपने घर ले जाता तो उस बेसरोसामनी के बावजूद वह खुश होती। हेलेन रुचि-सम्पन्न है मगर नखरेबाज नहीं है। वह हर तरह की आजमाइश और तजुर्बे के लिएतैयार रहती है। हेलेन शायद आजमाइशों को और नागवार तजुर्बों को बुलाती है। मगर मुझ में न यह कल्पना है न वह साहस।
उसने जरा गौर से मेरा चेहरा देखा होता तो उसे मालूम हो जाता कि उस पर कितनी शार्मिन्दगी और कितनी बेचारगी झलक रही थी। मगर शिष्टाचार का निबाह तो जरुरी था, मैंने आपत्ति की, मैं तो आपको अपना मेहमान बनाना चाहता थ मगरआप उल्टा मुझे होटल लिए जा रही हैं।
उसने शरारत से कहा-इसीलिए कि आप मेरे काबू से बाहर न हो जाएं। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होती कि आपके आतिथ्य सत्कार का आनन्द उठाऊं लेकिन प्रेम ईर्ष्यालु होता है, यह आपको मालूम है। वहां आपके इष्ट मित्र आपके वक्त का बड़ा हिस्सा लेंगे,आपको मुझसे बात करने का वक्त ही न मिलेगा और मर्द आम तौर पर कितने बेमुरब्बत ओर जल्द भूल जाने वाले होते हैं इसका मुझे अनुभव हो चुका है। मैं तुम्हें एक क्षण के लिए भी अलग नहीं छोड़ सकती। मुझे अपने सामने देखकर तुम मुझे भूलना भी चाहो तो नहीं भूल सकते।
मुझे अपनी इस खुशनसीबी पर हैरत ही नहीं, बल्कि ऐसा लगने लगा कि जैसे सपना देख रहा हूं। जिस सुन्दरी की एक नजर पर मैं अपने को कुर्बान कर देता वह इस तरह मुझसे मुहब्बत काइजहार करे। मेरा तो जी चाहता था कि इसी बात पर उनके कदमों को पकड़ कर सीने से लगा लूं और आसुंओं से तर कर दूं।
होटल में पहुंचे। मेरा कमरा अलग था। खाना हमने साथ खाया और थोड़ी देर तक वहीं हरी-हरी घास पर टहलते रहे। खिलाड़ियों को कैसे चुना जाय, यही सवाल था। मेरा जी तो यही चाहता था कि सारी रात उसके साथ टहलता रहूं लेकिन उसने कहा-आप अब आराम करें, सुबह बहुत काम है। मैं अपने कमरे में जाकर लेट रहा मगर सारी रात नींद नहीं आई। हेलेन का मन अभी तक मेरी आंखों से छिपा हुआ था, हर क्षण वह मेरे लिए पहेली होती जा रही है।
१२ जनवरी-आज दिन-भर लखनऊ के क्रिकेटरों का जमाव रहा। हेलेन दीपक थी और पतिंगे उसके गिर्द मंडरा रहे थे। यहां से मेरे अलावा दो लोगों का खेल हेलेन को बहुत पसन्द आया-बृजेन्द्र और सादिक। हेलेन उन्हें आल इंडिया टीम में रखना चाहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों इस फन के उस्ताद हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह शुरुआत की है उससे तो यही मालूम होता है कि वह क्रिकेट खेलने नहीं अपनी किस्मत की बाजी खेलने आये हैं। हेलने किस मिजाज की औरत है, यह समझना मुश्किल है। बृजेन्द्र मुझसे ज्यादा सुन्दर है, यह मैं भी स्वीकार करता हूं, रहन-सहन से पूरा साहब है। लेकिन पक्का शोहदा, लोफर। मैं नहीं चाहता कि हेलेन उससे किसी तरह का सम्बन्ध रक्खे। अदब तो उसे छू नहीं गया। बदजबान परले सिरे का, बेहूदा गन्दे मजाक, बातचीत का ढंग नहीं और मौके-महल की समझ नहीं। कभी-कभी हेलेन से ऐसे मतलब-भरे इशारे करजाता है कि मैं शर्म से सिर झुका लेता हूं लेकिन हेलेन को शायद उसका बाजारुपन, उसका छिछोरापन महसूस नहीं होता। नहीं, वह शायद उसके गन्दे इशारों कामजा लेती है। मैंने कभी उसके माथे पर शिकन नहीं देखी। यह मैं नहीं कहता कि वह हंसमुखपन
गुल्ली-डंडा
हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’
‘हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।‘
‘न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’
‘हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।‘
‘मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’
‘हॉँ, मेरे गुलाम हो।‘
‘मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।‘
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
‘वह तो पेट में चला गया।‘
‘निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।‘
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।
2
उन्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।
बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियॉँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की सैर करने निकला। ऑंखें किसी प्यासे पथिक की भॉँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहॉँ और कुछ परिचित न था। जहॉँ खँडहर था, वहॉँ पक्के मकान खड़े थे। जहॉँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियॉँ बॉँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने का बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहॉँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हॉँ-हॉँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।
‘हॉँ, है तो।‘
‘जरा उसे बुला सकते हो?’
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पॉँच हाथ काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हॉँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
‘बहुत मजे में। तुम अपनी कहा।‘
‘डिप्टी साहब का साईस हूँ।‘
‘मतई, मोहन, दुर्गा सब कहॉँ हैं? कुछ खबर है?
‘मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?’
‘मैं तो जिले का इंजीनिया हूँ।‘
‘सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?
‘अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
‘आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दॉँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।‘
या बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बन
लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहॉँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।
गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं मेरी क्या गिनती?
मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?
गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।
‘वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।‘
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहॉँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बाऍं कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहूँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धॉँधलियॉँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था। हालॉँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टॉँड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियॉँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाऍं, कभी आगे, कभी पीछे।
आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धॉँधली की-गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई; लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।
‘न लगी होगी।‘
‘डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’
‘नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?’
बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज की क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरा का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दॉँव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गई, लग गई। टन से बोली।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा-तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।
‘टन से बोली है सरकार!’
‘और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हॉँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धॉँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दॉँव देना तय कर लिया।
गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
‘नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दॉँव ले लो।‘
‘गुल्ली सूझेगी नहीं।‘
‘कुछ परवाह नहीं।‘
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टॉँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दॉँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिश्च दिया।
‘एक दॉँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।‘
‘नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।‘
‘तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?’
‘खेलने का समय कहॉँ मिलता है भैया!’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला-कल यहॉँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टॉँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने कुछ धॉँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।
मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धॉँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’
‘हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।‘
‘न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’
‘हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।‘
‘मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’
‘हॉँ, मेरे गुलाम हो।‘
‘मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।‘
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
‘वह तो पेट में चला गया।‘
‘निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।‘
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।
2
उन्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।
बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियॉँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की सैर करने निकला। ऑंखें किसी प्यासे पथिक की भॉँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहॉँ और कुछ परिचित न था। जहॉँ खँडहर था, वहॉँ पक्के मकान खड़े थे। जहॉँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियॉँ बॉँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने का बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहॉँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हॉँ-हॉँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।
‘हॉँ, है तो।‘
‘जरा उसे बुला सकते हो?’
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पॉँच हाथ काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हॉँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
‘बहुत मजे में। तुम अपनी कहा।‘
‘डिप्टी साहब का साईस हूँ।‘
‘मतई, मोहन, दुर्गा सब कहॉँ हैं? कुछ खबर है?
‘मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?’
‘मैं तो जिले का इंजीनिया हूँ।‘
‘सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?
‘अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
‘आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दॉँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।‘
या बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बन
लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहॉँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।
गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं मेरी क्या गिनती?
मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?
गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।
‘वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।‘
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहॉँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बाऍं कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहूँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धॉँधलियॉँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था। हालॉँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टॉँड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियॉँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाऍं, कभी आगे, कभी पीछे।
आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धॉँधली की-गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई; लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।
‘न लगी होगी।‘
‘डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’
‘नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?’
बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज की क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरा का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दॉँव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गई, लग गई। टन से बोली।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा-तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।
‘टन से बोली है सरकार!’
‘और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हॉँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धॉँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दॉँव देना तय कर लिया।
गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
‘नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दॉँव ले लो।‘
‘गुल्ली सूझेगी नहीं।‘
‘कुछ परवाह नहीं।‘
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टॉँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दॉँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिश्च दिया।
‘एक दॉँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।‘
‘नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।‘
‘तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?’
‘खेलने का समय कहॉँ मिलता है भैया!’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला-कल यहॉँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टॉँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने कुछ धॉँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।
मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धॉँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।
आत्म-संगीत
आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राण-पोषिणी घ्वनियॉँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍं छायी रहती हैं, या मुखमंडल पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी ऑंखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँची। वह व्याकुल हो गयी—जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी—जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर ऑंखों से ऑंसू निकल जाते हैं।
सरिता-तट पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।
वह घंटों चलती रही, यहॉँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।
2
मनोरमा ने विवश होकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली—मॉँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है।
मॉँझी—रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम हैं
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमॉँगी मजदूरी दूँगी।
मॉँझी—तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस में निबाह नहीं।
मनोरमा—चौधरी, तेरे पॉँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण खिंचे चले जाते हैं।
मॉँझी—क्या इनाम मिलेगा?
मनोरमा—जो तू मॉँगे।
‘मॉँझी—आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज मॉँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न मॉँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो?
मनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मूल्यवान है। मैं इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुख-मंडल प्रकाशित हो गया—वह कठोर, और काला मुख, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी।
अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गयी हो। कदाचित कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीत-पूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह ! कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।
मॉँझी—इस हार हो लेकर मैं क्या करुँगा?
मनोरमा—सच्चे मोती हैं।
मॉँझी—यह और भी विपत्ति हैं मॉँझिन गले में पहन कर पड़ोसियों को दिखायेगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियॉँ देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर सॉँप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए।
मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉँग, वही दूँगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रतीक्षा करने की तनिक भी शक्ति नहीं हैं। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है।
मॉँझी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीजिए।
मनोरमा—अरे निर्दयी! तू मुझे बातों में लगाये रखना चाहता हैं मैं जो देती है, वह लेता नहीं, स्वयं कुछ मॉँगता नही। तुझे क्या मालूम मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूँ।
मॉँझी—और क्या दीजिएगा?
मनोरमा—मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुझे अपना महल दे दूँगी, जिसे देखने के लिए कदाचित तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं।
मॉँझी—(हँस कर) उस महल में रह कर मुझे क्या आनन्द मिलेगा? उलटे मेरे भाई-बंधु शत्रु हो जायँगे। इस नौका पर अँधेरी रात में भी मुझे भय न लगता। ऑंधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। किंतु वह महल तो दिन ही में फाड़ खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायँगे। और आदमी कहॉँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर कहॉँ? इतना माल-असबाब कहॉँ? उसकी सफाई और मरम्मत कहॉँ से कराऊँगा? उसकी फुलवारियॉँ सूख जायँगी, उसकी क्यारियों में गीदड़ बोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।
मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि संगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनन्द अधिक प्रखर हो गया था—जैसे बत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशवान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा—आह! तू फिर अपने मुँह से क्यों कुछ नहीं मॉँगता? आह! कितना विरागजनक राग है, कितना विह्रवल करने वाला! मैं अब तनिक धीरज नहीं धर सकती। पानी उतार में जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, श्वास हवा के लिए जितनी विकल होती है, गंध उड़ जाने के लिए जितनी व्याकुल होती है, मैं उस स्वर्गीय संगीत के लिए उतनी व्याकुल हूँ। उस संगीत में कोयल की-सी मस्ती है, पपीहे की-सी वेदना है, श्यामा की-सी विह्वलता है, इससे झरनों का-सा जोर है, ऑंधी का-सा बल! इसमें वह सब कुछ है, इससे विवेकाग्नि प्रज्ज्वलित होती, जिससे आत्मा समाहित होती है, और अंत:करण पवित्र होता है। मॉँझी, अब एक क्षण का भी विलम्ब मेरे लिए मृत्यु की यंत्रणा है। शीघ्र नौका खोल। जिस सुमन की यह सुगंध है, जिस दीपक की यह दीप्ति है, उस तक मुझे पहुँचा दे। मैं देख नहीं सकती इस संगीत का रचयिता कहीं निकट ही बैठा हुआ है, बहुत निकट।
मॉँझी—आपका महल मेरे काम का नहीं है, मेरी झोपड़ी उससे कहीं सुहावनी है।
मनोरमा—हाय! तो अब तुझे क्या दूँ? यह संगीत नहीं है, यह इस सुविशाल क्षेत्र की पवित्रता है, यह समस्त सुमन-समूह का सौरभ है, समस्त मधुरताओं की माधुरताओं की माधुरी है, समस्त अवस्थाओं का सार है। नौका खोल। मैं जब तक जीऊँगी, तेरी सेवा करुँगी, तेरे लिए पानी भरुँगी, तेरी झोपड़ी बहारुँगी। हॉँ, मैं तेरे मार्ग के कंकड़ चुनूँगी, तेरे झोंपड़े को फूलों से सजाऊँगी, तेरी मॉँझिन के पैर मलूँगी। प्यारे मॉँझी, यदि मेरे पास सौ जानें होती, तो मैं इस संगीत के लिए अर्पण करती। ईश्वर के लिए मुझे निराश न कर। मेरे धैर्य का अन्तिम बिंदु शुष्क हो गया। अब इस चाह में दाह है, अब यह सिर तेरे चरणों में है।
यह कहते-कहते मनोरमा एक विक्षिप्त की अवस्था में मॉँझी के निकट जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानों वह संगीत आत्मा पर किसी प्रज्ज्वलित प्रदीप की तरह ज्योति बरसाता हुआ मेरी ओर आ रहा है। उसे रोमांच हो आया। वह मस्त होकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ कि मैं हवा में उड़ी जाती हूँ। उसे अपने पार्श्व-देश में तारे झिलमिलाते हुए दिखायी देते थे। उस पर एक आमविस्मृत का भावावेश छा गया और अब वही मस्ताना संगीत, वही मनोहर राग उसके मुँह से निकलने लगा। वही अमृत की बूँदें, उसके अधरों से टपकने लगीं। वह स्वयं इस संगीत की स्रोत थी। नदी के पास से आने वाली ध्वनियॉँ, प्राणपोषिणी ध्वनियॉँ उसी के मुँह से निकल रही थीं।
मनोरमा का मुख-मंडल चन्द्रमा के तरह प्रकाशमान हो गया था, और ऑंखों से प्रेम की किरणें निकल रही थीं।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी ऑंखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँची। वह व्याकुल हो गयी—जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी—जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर ऑंखों से ऑंसू निकल जाते हैं।
सरिता-तट पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था।
वह घंटों चलती रही, यहॉँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।
2
मनोरमा ने विवश होकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली—मॉँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है।
मॉँझी—रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम हैं
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमॉँगी मजदूरी दूँगी।
मॉँझी—तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस में निबाह नहीं।
मनोरमा—चौधरी, तेरे पॉँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण खिंचे चले जाते हैं।
मॉँझी—क्या इनाम मिलेगा?
मनोरमा—जो तू मॉँगे।
‘मॉँझी—आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज मॉँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न मॉँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो?
मनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मूल्यवान है। मैं इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुख-मंडल प्रकाशित हो गया—वह कठोर, और काला मुख, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी।
अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गयी हो। कदाचित कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीत-पूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह ! कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती।
मॉँझी—इस हार हो लेकर मैं क्या करुँगा?
मनोरमा—सच्चे मोती हैं।
मॉँझी—यह और भी विपत्ति हैं मॉँझिन गले में पहन कर पड़ोसियों को दिखायेगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियॉँ देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर सॉँप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए।
मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉँग, वही दूँगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रतीक्षा करने की तनिक भी शक्ति नहीं हैं। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है।
मॉँझी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीजिए।
मनोरमा—अरे निर्दयी! तू मुझे बातों में लगाये रखना चाहता हैं मैं जो देती है, वह लेता नहीं, स्वयं कुछ मॉँगता नही। तुझे क्या मालूम मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूँ।
मॉँझी—और क्या दीजिएगा?
मनोरमा—मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुझे अपना महल दे दूँगी, जिसे देखने के लिए कदाचित तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं।
मॉँझी—(हँस कर) उस महल में रह कर मुझे क्या आनन्द मिलेगा? उलटे मेरे भाई-बंधु शत्रु हो जायँगे। इस नौका पर अँधेरी रात में भी मुझे भय न लगता। ऑंधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। किंतु वह महल तो दिन ही में फाड़ खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायँगे। और आदमी कहॉँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर कहॉँ? इतना माल-असबाब कहॉँ? उसकी सफाई और मरम्मत कहॉँ से कराऊँगा? उसकी फुलवारियॉँ सूख जायँगी, उसकी क्यारियों में गीदड़ बोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी।
मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि संगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनन्द अधिक प्रखर हो गया था—जैसे बत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशवान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा—आह! तू फिर अपने मुँह से क्यों कुछ नहीं मॉँगता? आह! कितना विरागजनक राग है, कितना विह्रवल करने वाला! मैं अब तनिक धीरज नहीं धर सकती। पानी उतार में जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, श्वास हवा के लिए जितनी विकल होती है, गंध उड़ जाने के लिए जितनी व्याकुल होती है, मैं उस स्वर्गीय संगीत के लिए उतनी व्याकुल हूँ। उस संगीत में कोयल की-सी मस्ती है, पपीहे की-सी वेदना है, श्यामा की-सी विह्वलता है, इससे झरनों का-सा जोर है, ऑंधी का-सा बल! इसमें वह सब कुछ है, इससे विवेकाग्नि प्रज्ज्वलित होती, जिससे आत्मा समाहित होती है, और अंत:करण पवित्र होता है। मॉँझी, अब एक क्षण का भी विलम्ब मेरे लिए मृत्यु की यंत्रणा है। शीघ्र नौका खोल। जिस सुमन की यह सुगंध है, जिस दीपक की यह दीप्ति है, उस तक मुझे पहुँचा दे। मैं देख नहीं सकती इस संगीत का रचयिता कहीं निकट ही बैठा हुआ है, बहुत निकट।
मॉँझी—आपका महल मेरे काम का नहीं है, मेरी झोपड़ी उससे कहीं सुहावनी है।
मनोरमा—हाय! तो अब तुझे क्या दूँ? यह संगीत नहीं है, यह इस सुविशाल क्षेत्र की पवित्रता है, यह समस्त सुमन-समूह का सौरभ है, समस्त मधुरताओं की माधुरताओं की माधुरी है, समस्त अवस्थाओं का सार है। नौका खोल। मैं जब तक जीऊँगी, तेरी सेवा करुँगी, तेरे लिए पानी भरुँगी, तेरी झोपड़ी बहारुँगी। हॉँ, मैं तेरे मार्ग के कंकड़ चुनूँगी, तेरे झोंपड़े को फूलों से सजाऊँगी, तेरी मॉँझिन के पैर मलूँगी। प्यारे मॉँझी, यदि मेरे पास सौ जानें होती, तो मैं इस संगीत के लिए अर्पण करती। ईश्वर के लिए मुझे निराश न कर। मेरे धैर्य का अन्तिम बिंदु शुष्क हो गया। अब इस चाह में दाह है, अब यह सिर तेरे चरणों में है।
यह कहते-कहते मनोरमा एक विक्षिप्त की अवस्था में मॉँझी के निकट जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानों वह संगीत आत्मा पर किसी प्रज्ज्वलित प्रदीप की तरह ज्योति बरसाता हुआ मेरी ओर आ रहा है। उसे रोमांच हो आया। वह मस्त होकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ कि मैं हवा में उड़ी जाती हूँ। उसे अपने पार्श्व-देश में तारे झिलमिलाते हुए दिखायी देते थे। उस पर एक आमविस्मृत का भावावेश छा गया और अब वही मस्ताना संगीत, वही मनोहर राग उसके मुँह से निकलने लगा। वही अमृत की बूँदें, उसके अधरों से टपकने लगीं। वह स्वयं इस संगीत की स्रोत थी। नदी के पास से आने वाली ध्वनियॉँ, प्राणपोषिणी ध्वनियॉँ उसी के मुँह से निकल रही थीं।
मनोरमा का मुख-मंडल चन्द्रमा के तरह प्रकाशमान हो गया था, और ऑंखों से प्रेम की किरणें निकल रही थीं।
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